मेरी व्यथा-कथा
मैं दीन -हीन
भूखा तुम्हारे आशीर्वचनों का -
चंचल मन
उद्विग्न
विपन्न
मैं सखा असंख्य दुर्व्यसनों का -
मैं टूटा दर्पण
बिना तन-मन का
तुम्हारी प्रतिमा उतार नहीं सकता -
मैं कृपण
उन्मादी
अपावन
तुम्हारी विलक्षणता को अपना नहीं सकता ?
जीजिविषा मानव-सेवा के लिए
उदार
सच्चरित्र
कर्मठ बनने की आकांक्षा -
हे देवि !
हे सहृदया !
हे दुर्गुणहारिणी !
साष्टांग वंदन करूँ
मुझे दो ये भिक्षा -
अमर नाथ ठाकुर , मई -जून , १९८७ , रूरकी .
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