प्रतिक्षण स्पर्श करती गुजरती
चली जाती शीतल पवन --
खिसकती चलती जाती जंगले से
पसरती सहस्र सूर्य-किरण --
ढलते दिन के साथ लंबी दूर होती
जाती कृषकाय छाया --
अंतरिक्ष में अदृश्य होता चला जाता
सवारियों के धुएँ का साया --
क्षण -क्षण सरकता दूर चलता जाता
मेघ -समूह क्षितिज के पार --
डूबता चला जाता सूरज
रोज-रोज अंधियारे से हार --
औंधे आकाश की पेंदी से
एक एक कर रिसते जाते तारे --
भागते कोयल-पपीहे कौए की
कर्कशता के मारे सबेरे-सबेरे--
विलंबित होती जाती
ढोल नगाड़े तबले की आवाज --
ठूंठ करते जाते वृक्ष
जब आसमान से गिरते गाज --
विलीन होती जाती प्रतिध्वनियों की
तरह विचार - समूह --
और निष्प्रभाव होती जाती
दृढ़ इच्छा-शक्ति समूल --
टूटते पहाड़ जैसा जीवन
तिस पर फटते बादलों जैसा विसंगतियों का रेला--
छोड़ जाता मुझ सबको
अकेला-अकेला बिलकुल अकेला --
अमर नाथ ठाकुर , कोलकाता , ३ जुलाई २०१३.
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