Saturday, 23 February 2013

माँ तूं जस – की – तस नहीं हो : एक पश्चात्ताप


     -१-

माँ की आँखें तब देख पाती थीं,
वह चावल से कंकड़ बीन लेती थी
चूड़ा से धान और भूसा अलग कर लेती थी
चीनी में तैरती चींटियों को अलग कर देती थी
सरसों और राई भी अलग-अलग कर लेती थी
वह मुझसे आँखें चार कर लेती थी
फिर मेरी खुशी मेरी पलकों से पढ़ती थी
मेरा विलाप और मेरी हैरानी के आंसू गिन लेती थी
होंठों की रेखा से मेरी प्यास और भूख सूंघ लेती थी
माँ की तीक्ष्ण-नज़र मुझे बींध जाती थी 
और मेरे चोर हृदय की  धड़कन भी पढ़ जाती थी

    -२-

अब मैं जवान हो गया हूँ
और मेरी माँ बूढ़ी हो गयी है
उसकी आँखों में मोतिया हो गया है
वह साफ नहीं देख पाती है
कहती है चेहरा धुंधला नज़र आता है
जलता बल्ब एक शोला नज़र आता है
अब वह हमसे आँखें चार नहीं कर पाती
ओठों की लकीरें नहीं गिन पाती
फिर भी वह वात्सल्य की तीक्ष्ण – नज़र चलाती है
और मेरे मन का हर चोर पकड़ लेती है
मेरे पद-चाप से मेरे प्रेम और दूराव को नाप लेती है
मेरे स्वर के भारीपन से मेरी उदासी को समझ लेती है
बहू के रूखेपन एवं तिरस्कार को महसूस कर लेती है
उसकी उपेक्षा भरी भौंहों की सिकुड़न को  
उसकी हर क्रियाओं से भाँप लेती है
गिरने से अथवा गिराकर प्याली टूटने के भेद को पढ़ लेती है
गिलास में दूध की ठंढी से क्रोध की ज्वाला नाप लेती है
थाली में रोटी की आवाज से नफरत की धुंध को थाह लेती है
चाय की मिठास से घर के सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को पढ़ लेती है
लेकिन मेरी अभी जवान आँखें होती है 
जो माँ की नम आँखों को भी अनदेखा कर जाती है
मैं कितना बेबस , संकुचित और कृतघ्न हो गया हूँ
पत्नी की प्रेम-वासना में  कितना निमग्न हो गया हूँ
मैं शायद जानबूझ कर चेतना-शून्य हो जाता हूँ
माँ की मोतिया की झिल्ली के ऊपर सारा दोष मढ़ देता हूँ
और कह देता हूँ – माँ अरी  
तूं तो जस-की-तस कहाँ रही .

अमर नाथ ठाकुर , २ फरवरी ,२०१३ , कोलकाता .

No comments:

Post a Comment

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...