Saturday, 23 February 2013

अब की होली कौन खेले


लुटेरों की चांदी हुई  जाती
फूलती-खिलती  सीना-जोरी ,
सत का अब न  मोल रहा
विवश   हुई    ईमानदारी .

भ्रष्ट    कदम   सरपट भागे
रिश्वत बनी उन्नतशील सवारी ,
चौपट   ही  जब  राजा हुआ
अंधेर    हुई   सगर  नगरी .

कुत्सितों  के   संग  सजे ,
दुरात्कारियों   के रंग रंगे ,
फिर आतंक का भंग घुले ,
तो मन में क्या उमंग जगे .

उफान पर हो  जब गंगा-जमुना
जान  पर  खेल  कौन   हेले ,
आँगन में क्रंदन कर रही ललना
तो   अबकी  होली  कौन खेले .

अमर नाथ ठाकुर , १८ फरवरी , २०१३, कोलकता .

No comments:

Post a Comment

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...