लुटेरों की चांदी
हुई जाती
फूलती-खिलती सीना-जोरी ,
सत का अब न मोल रहा
विवश हुई ईमानदारी .
भ्रष्ट कदम सरपट भागे
रिश्वत बनी उन्नतशील
सवारी ,
चौपट ही जब राजा हुआ
अंधेर हुई सगर नगरी
.
कुत्सितों के
संग सजे ,
दुरात्कारियों के रंग रंगे ,
फिर आतंक का भंग
घुले ,
तो मन में क्या उमंग
जगे .
उफान पर हो जब गंगा-जमुना
जान पर खेल कौन हेले
,
आँगन में क्रंदन कर
रही ललना
तो अबकी होली कौन
खेले .
अमर नाथ ठाकुर , १८
फरवरी , २०१३, कोलकता .
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