Wednesday, 9 August 2017

वह और मैं

वह और मैं

1.

मैं भी कल
वह भी कल

फर्क है कि मैं बीता हुआ हूँ
और वह आने वाला है ।
मैं शाम हूँ तो वह सबेरा है
मैं रात की अँधियारी तो वह
दिन का ऊजाला है
मैं बुझा हुआ राख हूँ
तो वह धधकता हुआ शोला है ।

2.

कितनी बार हँस -  हँस कर मैं रो चुका हूँ
कितनी बार खट्टा – मीठा चख चुका हूँ ,
मैं सोकर जाग चुका हूँ
मैं जागकर सो चुका हूँ ।
मैं तो वर्षों से  थपेड़े खाकर
कब से दुःख-सुख निगलने लगा हूँ ।
समय के चक्र पे सवार ऊपर – नीचे
आगे - पीछे हो चुका  हूँ ।

उसका तो अभी हँसना शुरू हुआ है 
रोने का उसे पता नहीं हुआ है ।
वह अभी - अभी तो आया है 
अभी कहाँ समझने लगा है ।


3.

मैं पसीना बहा चुका हूँ
मैं रक्त में नहा चुका हूँ
अब आकर यह दिन कमाया है 
जब हर क्षण को सजाया है ।

मुझे हर मौसम जाना जाना - सा लगता है
मुझे हर जगह पहचाना-सा लगता है
जानी पहचानी - सी लगती है गलियाँ
जानी पहचानी - सी लगती है बोलियाँ

वही रोज़ निकलने वाला राह दिखाने वाला
होता है सूरज अकेला ,
रोज़ वही राह रोकने वाला वही
उमड़ते-घुमड़ते  बादलों का रेला ।
वही असीमित गिनती वाले आकाश के तारे ,
वही हँसी बिखेरता इठलाता चाँद मामा हमारे ।

पों-पों करती गाड़ियाँ
चहचहाती चिड़ियाँ ,
हरे-भरे पेड़
वही खेत वही मेड़ ,
जानी पहचानी - सी रातें
वही दुहराती-सी बातें ।

कभी अकेले रोया
कभी अकेले हँसा
कभी मिलकर रोया
कभी मिलकर हँसा ।
अब जब सब समझ चुका हूँ
सारे के सारे बाल तभी तो पका चुका हूँ,
अब क्या हँसना
अब क्या रोना ,
क्या खुशी क्या गम
नहीं कोई अब सम-विषम ।

वह अभी-अभी तो आया है
अभी ही क्या समझने लगा है ।
अभी वह हँसने पर ही तो शुरू हुआ है
अभी ही क्यों उसका रोने का क्रम आने को हुआ है !

अमर नाथ ठाकुर , 6 अगस्त , 2017 , मेरठ ।




Saturday, 1 July 2017

मेरे कुछ दोस्त मेरे रिलेटिव लगने लगे हैं


क्यों मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव लगने लगे हैं ?
वो मेरी सैलरी पूछने लगे हैं
बाहरी इनकम का अनुमान लगाने लगे हैं
किस हिल स्टेशन पर घूमने गए
किस स्टार होटल में रुके पूछने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव होने लगे हैं .

वो मेरे कपड़े का ब्रांड और दाम पूछने लगे हैं
कितने घर और किस लोकेलिटी में खरीदा पूछने लगे हैं
वो मेरे हर उत्तर की जांच भी करने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव होने लगे हैं .

विमुद्रीकरण के समय कितना ठिकाने लगाया पूछने लगे हैं
मेरे उत्तर पर कुटिल मुस्कान और शंका की दृष्टि से ताकने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव होने लगे हैं .

मेरी ईमानदारी और सत्य-निष्ठा पर सवाल दागने लगे हैं
मेरे हर उत्तर को विजिलेंस एंगल से परखने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त अब मेरे रिलेटिव होने लगे हैं .

फिक्स्ड लाइन में कितनी भी घंटी बजे नहीं उठाते
क्योंकि अब वो मेरा नंबर पढ़ने लगे हैं 
गलती से उठा लें तो हेलो-हेलो कह कर रखने लगे हैं 
मोबाइल पर तो ‘आउट ऑफ स्टेशन हूँ’ कहकर टरकाने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त मेरे रिलेटिव होने लगे हैं .

हँस कर भी कुछ पूछ लिया तो बुरा मानने लगे हैं
रो कर कराह कर पूछूँ तो नाटक समझने लगे हैं
मेरे कुछ दोस्त मेरे रिलेटिव होने लगे हैं .

कहाँ गए वो दिन जब वो 
मेरे बिछौने पर कूद जाते थे
बिना जूता खोले लेट जाते थे
पसीना बिना पोंछे भी गले लग जाते थे
थप्पड़ लगा दो तो भी हँस देते थे
दूसरे थप्पड़ के लिए सर बढ़ा देते थे
हम भूखे होते थे तो भी प्लेट से 
समोसा झपट कर भाग जाते थे
साले हमेशा भुक्कड़ बनकर आता है 
हम भी कह हँस जाते थे
वो ठहाके लगा कर हँसते थे 
कहते थे , और मँगा और खाएँगे
और हम भी हँसकर और मँगा लेते थे
फिर प्यार से बाँट-बाँट कर खाते थे
फिर दुकानदार को पैसे दिलाने के लिए
हँगामा भी खड़ा कर देते  थे .
लेकिन होस्टल आकर हिसाब जब वो करने लगते थे 
तो फिर हम उसे थप्पड़ लगा देते थे –
साले रिलेटिव समझने लगा है !
कहकर हेय-दृष्टि से उसे देखते  थे 
और माँफी माँग कंधे पर हाथ रख वो फिर हँसने लगते थे .



मुझे याद है एक बार जब मैं रोया था
ले जाकर उसने मुझे भर पेट खिलाया था
खुद नीचे लेटकर मुझे अपने बेड पर सुलाया था
क्योंकि वह मेरा दोस्त था 
और मैं उसका नहीं पराया था .

अब वो दिन याद आने लगे हैं
जब कि कुछ दोस्त भी रिलेटिव लगने लगे हैं
न हाल-चाल,न चाय,समय नहीं है
कहकर वो कदम बढ़ा लेने लगे हैं
ईर्ष्या-द्वेष और दुश्मनी का भी भाव सँजोने लगे हैं 
सामने राम-राम बोलेंऔर बगल में छूरी रखने लगे हैं 
मेरे कुछ दोस्त मेरे रिलेटिव लगने लगे हैं .

सामने से भी गुजरकर अब नज़र फेरने लगे हैं
रास्ते बदलने लगे हैं , क्योंकि विचार बदलने लगे हैं
इसलिए कुछ दोस्त  अब रिलेटिव लगने लगे हैं .


अमर नाथ ठाकुर , ३० जून , २०१७ , मेरठ .





Monday, 15 May 2017

मेरा अंतःकरण मेरे ईश्वर

मेरा अंतःकरण,
मेरे ईश्वर !

हम बात काट कर उलझा आते हैं
पर यह सब सुलझा आता है
हम खत लिख मना कर आते हैं
यह भाग-भाग कर हाँ कह आता है
हम शत्रुता का दम्भ भर-भर हुंकारते  हैं
यह सुलह का संदेशा  पहुँचा आता  है

हम जब दो कदम आगे चलते हैं
यह मीलों तक चल चुका होता है
हम जब कदम खींच-खींच लेते हैं
यह वहाँ खम्भा गाड़ आता है
हम जब क्रोधित हो आँखें लाल-लाल कर लेते हैं
यह जार-जार रो आँसू बहाता है पछताता है

हम जब दौड़ते - दौड़ते  राह मापते हैं
यह आगे-आगे राह दिखाता चलता है
हम जब घुप अँधेरे में भटकने लगते हैं
यह हाथ पकड़-पकड़ मुझे सरकाता  है
हम कभी खड़े- खड़े समर्पण कर आते हैं
पर यह  मुझे बार-बार ढाढ़स दे बहलाता है
हम चौराहे पर किंकर्त्तव्यविमूढ़ भटकते हैं
अंतःकरण प्रकाश - पुंज बन राह दिखाता है

हम जब शक्तिहीन और  साधनहीन हो जाते हैं
तब यह अंतःकरण पाथेय बन मुझे उकसाता है
हम  सताते हैं , गालियाँ बकते हैं , नफ़रत करते हैं
पर यह माफी माँग सब बराबर कर आता है
हम सदैव उसे अनसुना और अनदेखा कर देते हैं
पर यह सतत हमें सुनता और देखता रहता है

अन्तहीन अतल सागर लहरों की थपेड़ों में हम उपलाते रहते हैं
वह मेरा सहभागी पतवार थाम मेरी नैया खेता रहता है ।
मेरा अन्तःकरण !
मेरे ईश्वर !

अमर नाथ ठाकुर , 14 मई , 2017, मेरठ ।



Sunday, 5 February 2017

बदल गया है सब कुछ

बदल गया है सब कुछ

यहाँ एक कच्ची  पगडण्डी गुजरती थी
जहाँ एक चौड़ी- सी पक्की  काली सड़क है ।
जहाँ साइकिल और बैलगाड़ी मटकती थी
वहाँ अब मोटरसाइकिल और कार की तड़क-भड़क  है ।
यहाँ फूस और मिट्टी का एक घर होता था
अब ईंट और एसबेस्टस का मकान है
खुली खिड़की और बिना दरवाजे के घर के बदले
चहारदीवारी , ग्रिल  और परदे से बन्द जहान है ।
धोती और लंगोट धारी बैठ बतियाते थे चटायी पर
 यहाँ विशाल आम  वृक्ष की हरी  डाली के  नीचे,
अब कुछ पतलून और टी शर्ट धारी होते हैं
 ठूठ आम के पेड़ से दूर कुर्सी में टेबुल के पीछे ।

जाड़े में फदी भैया के दालान पर घुरा लगता था
बैठने के लिये पुआल के बीड़े का घेरा लगता था
टोल भर के लोग जमा होकर हाथ-पाँव सेकते थे,
पास में कुत्ते भौंकते थे, घोड़े हिनहिनाते थे,
बकरी मिमियाती थी , गाय-बैल डकारते थे ।

गाँव भर के हर घर- परिवार की बात होती थी
जात-पात की भी बात  होती थी
 किन्तु बैठने की सबकी एक ही खाट होती थी ।
रेडियो पर गौर से  बी बी सी समाचार सुनते थे
बड़े बुजुर्गों के बीच कभी कोई पुराना अखबार पढ़ते थे ।
सोवियत रूस से दोस्ती पर गर्व करते थे
उस समय अमेरिका से नफरत करते थे
 कश्मीर पर सबका एक मत होता था
पाकिस्तान से लड़ाई की बात पर खून खौल जाता था ।
गिले-शिकवे और ईर्ष्या-द्वेष चुटकी में टाल देते थे
हँसी-ठिठोले में सबका हाल चाल ले लेते थे ।

अब घर-घर में गैस और इलेक्ट्रिक हीटर है
ठंढी हवा को रोकने के लिये शटर है ,
सब एक-दूसरे से अलग-अलग हट-हट कर है ,
घर-घर में टी वी है डिश कनेक्शन है
अब सीरियल और फिल्म देखने का चलन है  ।
लोग कहाँ मिलते हैं भाईचारा तर-बतर है
बुढ़िया- बूढ़े खांस रहे हैं परिवार तितर-बितर है ।

पहले गुलटनमा , टुनटुन , बबरा, हुकना , ठकना और चुकना था
जिसके साथ उठना बैठना खेलना और कूदना था ।
अब राजू , पीटर , सोनू, मोनू , पिंकू , पप्पू और गोल्डी जैसे बच्चे हैं
जहाँ कॉफी ड्रिंक्स आइसक्रीम चिप्स और गोल गप्पे के चर्चे हैं ।
घुच्ची की बात होती थी ,कौड़ी , लेड बॉल और निशाने की बात होती थी
पिल्लो डण्डा पीटो गुड्डी कबड्डी पच्चीसी ताश और कुश्ती की बात होती थी
अब क्रिकेट गोल्फ टेनिस और शूटिंग की बात होती है
बात-बात पर गोली बम पिस्तौल चलते हैं और शराब  साथ देती है ।

सुबह-शाम नौजवानों के अड्डे जमते थे और मिलते थे
सब हँसते थे और  दिल खोल कर ठहाके लगाते थे
अब जोक मेसेज करते  हैं मोबाइल टेलीफोन पर  बात करते हैं
अब ह्वाट्सएप में गड़े रहते  हैं फेस बुक पर ऑनलाइन दीखते हैं


बदल गया है सब कुछ
लुट गया है सब कुछ ।
अब वो संवेदना नहीं
अब वो चेतना नहीं ।
मिलकर चलने की बात होती थी
अब बँटकर बढ़ने की बात होती है ।
गाँव शहर में मिल रहे हैं
वो लहर हमें लील रहे हैं ।

अमर नाथ ठाकुर , 5 फरवरी , 2017 , मेरठ ।


Saturday, 4 February 2017

जिन्दगी में कुछ नहीं कर सकते

जिन्दगी में कुछ नहीं कर सकते

जब नहीं बोल सकते थे
जब नहीं चल सकते  थे
जब नहीं सोच सकते  थे
क्योंकि तब तो बच्चे थे ।
तब जुबान कड़वी नहीं थी
शरीर में दम नहीं था
मन किन्तु कितना सच्चा था ।
और सब दिखता अच्छा था ।

फिर जब बोलने लगे तो गलत ही बोलते थे
फिर जब चलने लगे तो गलत रास्ते ही चलते थे
फिर जब सोचने लगे तो  फिर गलत ही सोचते थे
क्योंकि तब तक जवान जो हो गये  थे ।
मन ,शरीर और सोच लहूलुहान हो गये थे ।

अब फिर नहीं बोल सकते क्योंकि जबान लड़खड़ाती है
चल नहीं सकते  क्योंकि कदम लड़खड़ाते हैं
अब सोच भी  नहीं सकते क्योंकि सोच गड़बड़ाते हैं
क्योंकि बूढ़ा जो हो चले हैं ।

पूरी जिन्दगी न बोल सकते
पूरी जिन्दगी न चल सकते
पूरी जिन्दगी न सोच सकते ,
तो फिर क्या यही है जिन्दगी ?

यही जिन्दगी है जब नहीं कुछ कर सकते ।

अमर नाथ ठाकुर , 4 फरवरी , 2017 , मेरठ ।


कुरुक्षेत्र का उपदेशक


मैं उसे गृहस्थी का उपदेश देता रहता हूँ
अपने अनुभव की  गूढ़ बातें बताता रहता हूँ
ऐसा करते हुए मैं कब कृष्ण बन जाता हूँ ,
मुझे नहीं पता !
जाने अनजाने उसे मैं अर्जुन समझ बैठता हूँ क्या ?
यह भी मुझे नहीं पता  !
लेकिन होता है मेरे दृष्टि-पटल पर
 कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र का  वह दृश्य अमर ,
सुदर्शन धारी श्री कृष्ण होते हैं रथ के सारथी
और गाण्डीव धारी शौर्य शाली अर्जुन महारथी ।

लेकिन नहीं होता है मेरी स्मृति-पटल पर ऐसा कोई विचार
कि कृष्ण के पास थी गोपियाँ  सोलह हज़ार
और सारी गोपियाँ कृष्ण - प्रेम में विलाप करती थीं जार- जार
कृष्ण भी सबको करते थे प्यार अपरम्पार ।
मैं इससे भी अनजाना- सा ही होता हूँ कि
मेरी एक ही गोपी होती है और वह भी अतृप्त ,
मैं भी होता हूँ  उदासीन और असन्तुलित ।

मेरा शिष्य अर्जुन की भाँति कर देता है प्रश्नों की बौछार
पर मेरे उपदेश को सुनने को नहीं होता वह तैयार
क्योंकि मैं उपदेशक कृष्ण का अंश भी नहीं दो-चार  ,
तिरस्कारी मुस्कान के बाद शिष्य मुझे देता है नकार ।
और इसलिये मैं उपदेश के लिये हो जाता हूँ अयोग्य ।
 गृहस्थ-जीवन का उपदेश देने का कैसे पाऊँ सुयोग ?

अमर नाथ ठाकुर , 3 फरवरी , 2017 , मेरठ ।




Wednesday, 18 January 2017

प्रभु सब तुम्हारे मारे हैं , सब तुम्हारे प्यारे हैं



ट्रान्सफर में हो , तुम प्रमोशन में हो
तुम लोन में हो , तुम लाइसेंस में हो
हे प्रभु तुम ही तो तुम हो , हर जगह हो !
तुम टेन्डर में  हो ,  तुम   सप्लाई की वज़ह  हो
तुम पेट्रोल पम्प अलॉटमेंट में हो
बिल बनाने में हो , बिल पेमेंट में हो !
हे प्रभु  तुम ही तो हो इन सभी कृपा- रूपी पापों में !

तुम नौकरी के अप्वाइंटमेंट में हो ,
तुम कोर्ट के जजमेन्ट में हो ,
सत में हार हो और जीत असत में हो
तुम क्रिमिनलों के जमानत में हो ।
नौकर हो या मालिक , चपरासी हो या अधिकारी
चोर हो या सिपाही , किसान हो या व्यापारी ।
तुम्हीं हो प्रभु इन सब की महत्वाकांक्षी सलाखों में !

तुम हथियारों की खरीद में हो , तुम हो ड्रग की तस्करी में
 कभी आतंकी  बनाने में  , कभी आतंकियों की तरक्की में ।
कभी भाई को सुपाड़ी देने में , कभी पार्टी क़ो तोड़ने में ,
 कभी मंत्री को खरीदने में , कभी अपहरण के तार जोड़ने में ।
तुम्हीं तो हो प्रभु इन सब क्रिया - कलापों में !

तुम भीड़ जुटाते हो , तुम से ही भोज होता है
 तुम ही रुलाते - हँसाते हो , तुम से ही मौज़ होता है ।
तुम चोरों का उद्देश्य हो , तुम डाकुओं का भी सपना
तुम गरीबों की अभिलाषा हो , धनिकों की भी तृष्णा ।
हे प्रभु तुम ही तो हो इन सब साथों में , इन सब उत्पातों में !

तुम्हारी वजह से जेब होती है,
 तुम्हारी वजह से ही जेब कतरे ।
तुम्हारी वजह से इज्जत होती है ,
तुम्हारी वजह से ही इज्जत के बखड़े ।
बैंकों के आगे होती हैं कतारें
भाई - भाई में हो जाती हैं दरारें
दोस्त दुश्मन हो जाते हैं
और चला देते हैं  कटारें ।
हिन्दू-मुस्लिम के हो जाते हैं झगड़े
कहीं राजनीति के पचड़े
कहीं दुर्नीति के कचड़े
कहीं अव्यवस्था के झमेले
कहीं खून-खराबे के मैले मेले ।

 सब तुम्हारे प्यारे हैं , प्रभु सब तुम्हारे मारे हैं !
सब तुमसे हारे हैं , प्रभु सब तुम्हारे वारे हैं !

अमर नाथ ठाकुर , 16 जनवरी , 2017 , मेरठ ।












मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...