उन्होंने
कहा कि अपने घर में एक पार्टी रख लो , डिपार्टमेंट के हमारे सभी जान – पहचान वाले लोगों को उसमें
बुला लेना और उसी पार्टी में हम उन सब को बेटे की शादी की इंगेजमेंट के दिन का
फॉर्मल निमन्त्रण दे देंगे . मेरा दिमाग घूम गया . मैं तुरन्त समझ गया कि एक बार
मैं फिर फँसने ही वाला हूँ . मैं सम्भला . मैं ने मन ही मन सोचा , कंजूसी और क्षुद्रता की भी हद होती है
और तुरन्त अपने खुराफाती दिमाग का सहारा लिया . सामान्य शिष्टाचार और अपने (मेरे दाँत उखाड़े गए थे और अभी भी दांत में दर्द था ) और अपनी
पत्नी के अस्वस्थ होने का कारण बनाया और उसी समय फोन पर ही इस पार्टी के नहीं
आयोजित कर पाने की असमर्थता बता कर पिंड छुड़ाया . कितनी बड़ी राहत की सांस ली थी हमने .
भूत में ऐसे कई मौके आये थे जब इस तरह के जबरदस्ती के नैतिक अनैतिक दबाव को हमने टाला था .
फिर तो भूत के आईने में हम झाँकने लग गये और तीन दशक पुरानी स्मृतियों के आगोस
में जैसे चंप से गये .
30-35 साल पहले की बात है जब हमने सेंट्रल गवर्नमेंट की क्लास वन की नौकरी कलकत्ते में ज्वाइन की थी . एक ही ऑफिस में अलग- अलग कमरे में हमलोग बैठते थे . लेकिन कश्यप साहेब हमसे छह - सात बैच सीनियर थे , अतः सम्माननीय थे और हमलोग उन्हें सर कहकर सम्बोधित करते थे . बातों में पता चला था वो हमारे ही कॉलेज के पढ़े हुए थे , इससे वह हम पर ज्यादे ही धौंस जमाते थे . हम सभी वहाँ छह क्लास वन ऑफिसर एक साथ ही ग्रुप में चलते थे . संयोग वश एक ही कोलोनी में घर भी पा गये थे तो एक साथ ही कलकत्ते की भीड़ भरी बस में लटक-फटक कर ऑफिस के लिये आना- जाना होता था . हमारे सर करीब नब्बे - पंचानब्बे किलो के थे , इससे उनको बस में पहले चढ़ने देते थे . वो भीड़ को जब चीरते हुए पीछे तक चले जाते तो उनके पीछे पैदा हुए वैक्यूम में बाँकी बचे हमलोग आसानी से अपना रास्ता ढूँढ़ लेते थे . मिला-जुला कर कश्यप साहेब हमारे गैंग लीडर थे . उनकी ही इच्छा चलती थी , हमलोग उनके आदेश को मानने की बाध्यता पाले हुए थे , क्योंकि वो इतने सीनियर थे और भारी - भरकम शारीरिक डील - डौल वाले भी थे .
कलकत्ते में हमलोगों का एक कॉमन मंथली फण्ड था , जिससे पूरे महीने बस का भाड़ा , चाय और दोपहर के लंच का चुकता किया जाता था . सब बराबर - बराबर का भार वहन करते थे भले ही हमलोग एक - एक समोसा , एक - एक रसगुल्ला खाएँ और कश्यप साहेब दो - दो तीन - तीन समोसे और रसगुल्ले प्रति दिन के हिसाब से क्यों न खा रहे हों क्योंकि ये उनके उस समय के बंगाल के साम्यवाद और प्रजातन्त्र के हिसाब के अनुरूप ही था . एक अकेला मैं ही इस भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाता था क्योंकि मैं थोड़ा बड़बोला था , और बाँकी दोस्त मुझे विप्लबी कहते थे . कुछ महीनों तक जब ऐसा ही चलता रहा , कोई सुनवाई नहीं हुई , तो लाचार हो हमने भी दो - दो तीन - तीन समोसे और रसगुल्ले खाने शुरू कर दिए . बाद में गैंग लीडर से हमारी बराबरी के प्रयास को देखकर नाराजगी में गैंग लीडर ने स्वयं अपने ही अध्यादेश से इस मंथली कॉमन फण्ड के सिस्टम को भंग कर दिया . लेकिन नौकरी जॉइन करने के , पहली सैलरी पाने के , शादी की साल गिरह के , किसी की शादी ठीक होने के , या कोई और अच्छी खबर के मिलने के अवसर की ताक कश्यप सर को हमेशा होती थी . इसे सेलिब्रेट करना अनिवार्य होता था और मिठाई और समोसे वो इन अवसरों पर जमकर तोड़ते थे क्योंकि इनमें उनका पॉकेट कहाँ कटता था .
इच्छापुर की कालोनी में सिविल विंग से
कह कर हमारे गैंग ने एक बैडमिंटन कोर्ट बनवा लिया था और सुबह - सबेरे हमलोग बैडमिंटन भी खेलने लगे थे . हमारे कश्यप सर अच्छा खेलते थे और
बाँकी हमलोग बारी – बारी से ज्यादे समय उनसे हारते ही रहते थे . लेकिन कभी – कभी यदि हम उन्हें हराने की
कगार पर पहुँचा देते या हरा देते तो यह उनके लिए सदमा जैसा होता और सर इस हार को पचा
नहीं पाते . अपना भड़ास हमारे ऊपर कई दिनों तक निकालते . हम भी नहीं चूकते अपने
ग्रुप में या ऑफिस में उनके सामने उनकी हार की चर्चा जरुर कर देते और उनकी बौखलाहट का मजा लेते .
कश्यप सर ब्रिज भी बढ़िया खेलते थे . वस्तुतः उन्होंने ही हमें ब्रिज खेलना सिखाया था .
ब्रिज में उनका पार्टनर उनकी पत्नी होती और मेरा पार्टनर मेरे ही बैच का एक दूसरा
ऑफिसर . हमलोग नव
सिखुए थे अतः खूब हारते रहते थे . हमारे सर को पैसा कमाने की बड़ी ललक थी . इससे
इसे वो जुआ का शक्ल देने की कोशिश करते और कहते हार - जीत में प्रति पॉइंट पाँच या
दस पैसे या पचास पैसे के हिसाब से चुकाना होगा . प्रति पॉइंट कम पैसे को रख हमें
फँसाने का उनका एक जाल था . हम इस जुए के सख्त विरोधी थे इसलिए जुए के शक्ल में इसे एकदम नहीं आने देते
थे . इससे वह हमें मिडिल क्लास या लोअर क्लास देहाती गँवारू कह मेरा मखौल भी उड़ाया
करते थे . उनके इस मखौल में हम स्वयं ही एक पंख और जोड़ देते थे यह कहकर कि
"मेरे दादाजी जाते - जाते कह गये थे , पोते , कुछ भी खेलना जुआ मत खेलना , पाप
लगेगा ." लोग ठहाका लगाते लेकिन हम ब्रिज को जुए की शक्ल देने नहीं देते
थे . उनकी धूर्तता और चालाकी को , उनकी हर इस प्रकार की क्रिया - कलाप को हम समझ लेते थे और
अपने को बचाते रहते थे . उनकी ये विषेशता हमने शुरू में ही उनके सम्पर्क में आते ही
जल्दी ही पढ़ लिया था , उस समय जब उन्होंने एक बार करीब दो हजार रुपये हमसे उधार ले लिये
. उस समय मेरा परिवार कलकत्ता आया नहीं था , अतः सात - आठ सौ रुपये महीने के हमारे गुजारे
के लिए पर्याप्त था . हमने भी उन्हें ये महीने की सैलरी से बचे रूपये उन्हें दे
दिए थे कि उनको बहुत
ही जरुरत थी जैसा उन्होंने हमें उस समय कहा था . बाद में ये रूपये उनसे वापस लेने
में मेरे पसीने छूट गये , कई
महीनों में उन्होंने थोड़ा - थोड़ा करके लौटाया . बाद में पता चला कि ये शेयर मार्केट के खिलाड़ी
थे और किसी अच्छे इन्वेस्टमेंट के लिए मेरा पैसा उन्होंने इस्तेमाल किया था मुझे
अँधेरे में रखकर , मुझे बुद्धू बनाकर और मेरे सीधेपन का फायदा उठाकर .
चार - पाँच महीने की नौकरी के बाद मैं अपना परिवार कलकत्ते ले आया था लेकिन उस शुरुआती दौर में मेरे घर में एक फोल्डिंग खटिया , एक मसहरी ( मच्छरदानी ) , दो तीन चमड़े के सूटकेस , एक गार्डेन चेयर , एक छोटा - सा टी टेबुल , एक थाली , एक गिलास , एक बाटी और एक बाल्टी और दैनिक इस्तेमाल के कुछ छोटे - छोटे सामान थे . पानी साफ़ करने के लिए एक कैंडल वाला वाटर फिल्टर , किरासन पर चलने वाला बत्ती वाला एक स्टोव भी था जिससे गृहस्थी चल रही थी . हाँ घर में सभी खिडकियों और दरवाजे पर हमने परदे लगा रखे थे . कुछ सप्ताह के बाद जब तक एक चौकी नहीं खरीद ली थी मैं नीचे में चटाई पर सोता था और करीब - करीब साल भर का मेरा लड़का और पत्नी खटिया पर , जिसमें वो दोनों सिमटकर चादर , तोसक सहित गड्ढे में एक जगह आ जाते थे .
मेरा लड़का लगभग एक साल के होने के बावजूद थोड़ा - थोड़ा चल पाता था . हम सुबह - शाम उसे गोद में घुमाते थे . वह बहुत दुबला भी था , इससे जो भी उसे देखता मुझे कुछ न कुछ उसके खाने - पीने का विशेष परामर्श भी दे दिया करता . इसी क्रम में एक सुबह जब मैं अपने लड़के को गोद में लेकर घूम रहा था तो मैं ने देखा कश्यप साहेब मैदान को चीरते हुए अपने क्वार्टर से हाथ में लकड़ी का एक पुराना तीन पहिया वाकर लिए हुए मेरी तरफ आ रहे हैं . मुझे खूब शिक्षा दी और मेरे बच्चे से पूरी सहानुभूति दिखाते हुए कि ..... इसे अपने पैरों पर चलना सीख लेने के लिए ये वाकर ठीक रहेगा ...... और इसीलिये ये ले लो ........ कहने लगे . उस समय मैं मन ही मन कितना खुश हो गया था कि ये कितने अच्छे हैं , मैं खामख्वाह इन्हें क्यों कोसता रहता हूँ ? मुझे अपनी स्वार्थी सोच वाली प्रवृत्ति पर बड़ी ग्लानि हुई . कुछ ही पलों के लिए तो मैं ने ऐसा सोचा होगा कि सर तब तक में अपने अधूरे वाक्य को पूरा कर गये थे कि ......... पटने में अपने बेटे के लिए बनबाया था , पूरे दो सौ लगे थे , अब तो मेरा बेटा बड़ा हो गया है पूरे पांच साल का हो गया है , ये वाकर ऐसे ही बेकार पड़ा था , डेढ़ सौ ही मैं लूंगा , तेरा बेटा बहुत जल्दी चलना - दौड़ना सीख जाएगा , मुझे भी आत्मिक खुशी होगी , अभी बनवाओगे ज्यादे लगेगा इस लकड़ी की क्वालिटी का और ऐसी फिनिस का .................. जैसे ही मैं ने सुना डेढ़ सौ रूपये लगेंगे , मेरी अन्तरात्मा घृणा और गुस्से से सातवें आसमान पर आ गयी किन्तु मेरे मुँह में लगाम था , मैं ने सर के सीनियर होने का पूरा लिहाज रखा किन्तु इस क्षुद्र प्रस्ताव के बदले में अपनी चालाकी से उन्हें उनकी शर्मिन्दगी का अहसास करा दिया . मैं ने मुस्कुराते हुए उनको फिर वही दादा जी वाली बात बता दी ............. सर, मेरे दादा जी कहते थे नए बच्चे को पुरानी चीज मत देना , बच्चे की आत्मा हमें अभिशप्त करेगी और हम पाप के भागी होंगे . वैसे कभी - कभी तो सोचता हूँ कि हम भी क्या अभी तक पुराने ख्यालात में उलझे रहें और दादा जी की इन दकियानूसी बातों में भरोसा रखे रहें. इसलिये ले ही लें जब आप दे रहे हैं तो . लेकिन , सर , मेरा ये लड़का भी न बड़ा बदतमीज है , बच्चा है इससे कम बोलता है लेकिन जब बोलता है बड़ा खाँटी कटु बोलता है , कल कह रहा था कि......... हम फेरा हुआ माल नहीं लेते . और फिर इसने मेरे भतीजे का पुराना शर्ट जो इसकी बड़ी चाची ने इसे दिया था , बालकनी से नीचे फेंक दिया था . अब बताइये ये खरीद भी लें और ये इस्तेमाल ही न करे तो ? ................ सर उलटे पाँव हाथ से वाकर और चेहरे से मुँह लटकाए हुए तेजी से जाते हुए दीख रहे थे . हम उसी दिन बेंटिंक स्ट्रीट गए और हम ने दो सौ पचहत्तर रूपये में एक ट्राय साईकिल खरीदकर अपने बच्चे को देकर उसे खुश कर दिया था . ऑफिस में जब ये वाकया हमने दोस्तों में बताया तो लोगों ने परोक्ष में सर की ढीठाई और बेशर्मी पर खूब मजा किया .
सर लेकिन इतने पर ही रुकने वाले नहीं थे . कुछ दिनों
बाद वो फिर आ गये . उनके पास रसोई गैस के दो कनेक्सन थे . उन्होंने हमें कहा .............. एक
सिलिंडर वाला कनेक्सन तुम ले लो तुम्हें बच्चे के साथ घर चलाने में बड़ी दिक्कत
होती होगी , किरासन के स्टोव पर खाना बनाने में बड़ी फजीहत होती है यार .............. मैं
ने फिर सोच लिया ........... क्या सर बदल गये
हैं ? मेरे साथ के दूसरे सहकर्मियों को ऐसा न कहकर हमें देने आये हैं ,
मैं पल में ही अभिभूत - सा हो गया और जैसे ही मैं
अब उन्हें धन्यवाद देता कि उनका व्यापार परक शेष शब्द समूह उनके मुखारविन्द से निकला ......
पन्द्रह सौ ही में दे देंगे ............. हमने कहा ....... सर
, हम तो सोच रहे थे कि
आप का यह विनम्र आव - भाव
तो हमें फ्री में
सिलिंडर इस्तेमाल के लिए है . एक सिलिंडर वाले कनेक्सन का तो सिक्यूरिटी मनी
चार सौ पचास रूपये है और गैर कानूनी रूप से दूसरे के नाम का यह
सिलिंडर और वो भी इतना महँगा हम कैसे ले सकते हैं . मेरे दादा जी के मरने के पहले
के वचन मुझे ऐसा करने से फिर रोक रहे हैं ................ मैं ने मुस्कुरा दिया था , मेरी हँसी
में पैना तिरस्कार था और बिना किसी लाग - लपेट के वह झर - झर प्रवाहित हो रहा था . लेकिन सर मुझे कहते
रहे ...........कहीं लाइन लगाओगे दो - तीन वर्षों के पहले नम्बर आने वाला नहीं ............ स्टोव पर
खाना बनाने के अनेक कष्टों को देखते हुए भी हम झुक नहीं सकते थे सर के निकृष्ट
व्यापार और मुनाफावादी वृत्ति के सामने . प्रेम, प्यार , सौहार्द्र में व्यवसाय का कहाँ कोई
स्थान होता है . कश्यप साहेब फिर अपने तुच्छ व्यापार के जाल में हमें नहीं फाँस पाए थे . पता नहीं हम किस आदर्श स्थिति की कल्पना में थे ? इस बार फिर जब हमने
अन्य सहकर्मियों में यह बात बताई तो पता चला सर ने उन लोगों को भी ऐसा ऑफर पहले ही
दे दिया हुआ था और सबकी सर के बारे में मेरी जैसी ही राय थी . कश्यप साहेब को हम अपने व्यवहार से लगातार घायल करते जा रहे थे .
सर
का घाव अभी शायद भरा
भी नहीं हुआ होगा कि
मेरे बेटे का जन्म दिन आ गया , लेकिन
ऐसी औकात कहाँ कि हम इसे धूम - धाम से मनावें . ऑफिस से आते समय हमने गंगूराम से
सबसे अच्छी वाली एक पैकेट मिठाई ले ली और सर सहित अन्य सहकर्मियों को घर में बुला
लिया . सबको मिठाई खिलाई , लेकिन सर नहीं आये , उन्होंने कहा इतने लोगों को तुम कहाँ
बैठाओगे, एक कुर्सी है तुम्हारे घर में , और उन्होंने यह भी पता कर लिया कि मिठाई
के अलावा हमने और किसी भी चीज का इंतजाम नहीं किया है , न केक, न और कोई खाने - पीने का . उन्होंने कहा ............ऐसे ही थोड़े किसी को बुला लिया जाता है
बिना किसी विशेष इंतजाम के ........... मुझे बुरा तो लगा लेकिन मैं ने इस अपमान
को अन्यथा न लेकर सम्बन्ध पूर्ववत बनाये रखा .
कुछ ही महीने का तो कॉलोनी में कश्यप साहेब के साथ रहने का सान्निध्य रहा . इस बीच में उन्होंने अपनी पुरानी किताबें , लकड़ी के बर्त्तन रखने वाले सेल्फ , जुते रखने के शू रैक , आलमीरा , पर्दे आदि अनेक पुरानी चीजें बेचने की कोशिश की . हमने अपने दादा जी के तथाकथित सिद्धान्तों का पालन करते हुए कोई भी पुरानी और इस्तेमाल की हुई चीजें नहीं खरीदी . पता नहीं कोई और उनकी चंगुल में आया या नहीं ? थोड़े दिनों में उनका प्रोमोसन हो गया और उनकी भारत के पश्चिम हिस्से में पोस्टिंग का आर्डर भी आ गया . उनके सामान बंधने लगे . सभी सहकर्मियों ने सोचा सर को क्यों न अपने - अपने यहाँ खाने या चाय पर बुलाकर उनको सम्मानपूर्वक फेयरवेल दे दिया जाय . हमने तो साफ़ मना कर दिया यह कह कर कि भाई मेरी पत्नी स्टोव पर इतना खाना नहीं बना पाएगी और हमारे घर में एक कुर्सी है , उन चार लोगों को हम कहाँ बिठाएँगे . दूसरे ने कहा हम तो फैमिली के साथ हैं नहीं , एक ने कहा हम तो आज छुट्टी पर जा रहे हैं और पत्नी की तबियत ठीक भी नहीं . चौथे मित्र ने जो अगले दिन सुनाया तो हँसते - हँसते सब लोट -पोट हो गये . उसने कहा कि ...... हमने भी सोचा कम से कम सर को फेयरवेल की चाय तो पिला दें , खाना तो नहीं खिला सकते . हमारे यहाँ भी दिक्कत थी इसलिए शाम में सर के घर गया और बताया......... चलिए सर , हमारे यहाँ चाय पीने , लेकिन सर ने साफ़ मना कर दिया . हमलोग आश्चर्य में पड़ गये सुनकर . लेकिन मित्र ने कहा अभी पूरी बात तो सुनो , अधूरी में क्यों अपनी राय बनाते हो . हमारे चाय के निमन्त्रण पर उन्होंने कहा , चाय छोड़ो कल शाम में हमलोग खाना ही खाने आ जाएँगे और आज अभी इसलिये ऑफिस से दोपहर में छुट्टी लेकर जा रहा हूँ उनके खाने का इन्तजाम करने के लिए . पड़ोसी से कुर्सी इत्यादि और थाली , गिलास , चम्मच के लिए कह रखा है . फिर तो सर के सामान पैक होने तक हमलोग उनसे कन्नी काटते रहे क्योंकि उन्होंने कह रखा था बारी – बारी से सबके यहाँ खाने पर आएँगे.
सर का सामान
ट्रक में लद चुका था और उसके
अगले दिन गाड़ी में स्टेशन के लिए जब बैठ रहे थे तो हमने पंद्रह - बीस पराठे और
सब्जी का उनको पैकेट दिया रास्ते के भोजन के लिए , जो हमारी पत्नी ने हमें बनाकर दिए थे . हमने उनसे विनती पूर्वक कहा ....... मेरे
घर में तो गृहस्थी पूरी जमी नहीं है , न कुर्सी , न बर्त्तन , न गैस , न डाइनिंग
टेबुल , इसलिए घर बुला नहीं पाए . सर
के मुख पर कोई भी भाव नहीं था , उन्होंने
अपनी नजर किसी और की तरफ फेर ली थी , निरपेक्ष भाव और अन्यमनस्क हो उन्होंने पैकेट रख लिया था . हमने
अपना फेयरवेल कर्त्तव्य का निर्वहन करके
सन्तोष की आह भरी थी . जाते - जाते उन्होंने हमें कागजों का एक पुलिन्दा दिया था जो
एसोसिएशन के ट्रेजरार का हिसाब-किताब का था और हमें अस्थायी रूप से ट्रेजरार का काम देखने
के लिए कहा गया था. हमने दूसरे दिन देखा , कश्यप साहेब एसोसिएशन का साढ़े तीन हजार
रूपये लेकर चले गये हैं . प्रेसिडेंट को हमने हिसाब दिखाया . प्रेसिडेंट एक और भी ऊँचे अधिकारी थे. तुरन्त ही फोन लगाया
और उन्हें रूपये भेजने को कहा गया . उनकी बड़ी बेइज्जती की गयी थी . उन्होंने वादा
किया था कुछ दिनों में वो रूपये भेज देंगे जो उन्होंने भेज तो दिए लेकिन उसके पहले
फोन करके हमें बहुत बुरा - भला कहकर हमारा बहुत क्लास लिया और हमें भविष्य के लिए
धमकी तक भी दे दी .
खैर
, सर तो चले गये थे
लेकिन उनकी व्यापार
प्रवृत्ति , उनका
स्वार्थ , उनकी क्षुद्रता और साथ ही उनकी धौंस हमलोगों की
चर्चा का बहुत ही आनंद का विषय होता था . लेकिन इन सबके बावजूद कश्यप साहेब को
कलकत्ते के ऑफिस में उनके सर्विस बुक , टेलीफोन डिस्कनेकसन , क्वार्टर सरेंडर आदि
से सम्बन्धित कोई काम होता तो वो हमें ही कहते और हम अक्सर उनका काम कराते रहते थे
. नयी जगह पर उनके बॉस
बड़ी कड़क मिजाज वाले थे और अपनी ईमानदारी , नियमबद्धता , समयबद्धता और अनुशासन प्रियता के लिए
पूरे भारतवर्ष में हम लोगों के कैडर में जाने जाते थे . कलकत्ते की तरह ये वहां भी
ऑफिस लेट पहुंचते थे , यहाँ तो कोई नहीं पूछता था लेकिन वहाँ कश्यप साहेब मेमो
पाते ही रहते थे . एक बार तो पता चला घर में एसटीडी ओवर यूज के लिए उस समय बारह –
चौदह हजार उनको भरना पड़ गया था . इनके टी ए बिल , एल टी सी बिल ऑडिट के जांच के
घेरे में भी आ गये थे . लेकिन इन सब आरोपों से ये बचते रहे और एक बिंदास अधिकारी
के रूप में कार्य करते रहे और अन्त में कुछ तिकड़म के साथ ऊँचे पद तक भी पहुँचने में
कामयाब रहे .
इन कई वर्षों में कई राज्यों के ट्रान्सफर झेलने के बाद हम फिर कोलकाता में पिछले कई महीने से पोस्टेड हैं . सर
कोलकाता आने वाले हैं
आज ही उन्होंने हमें फोन किया . एअरपोर्ट से गाड़ी चाहिये गेस्ट हाउस तक के लिए और
उसके बाद भी कुछ और दिनों के लिए . हमने असमर्थता जताई , गाड़ी और ड्राईवर की खराब स्थिति उनको
बढ़ा - चढ़ा
कर बतायी क्योंकि
वो धौंस जमाते ऑफिसर बन जाते हैं जहाँ भी रहते हैं ऐसे में कलकत्ते में कोई
ड्राईवर उनको अपनी सेवा नहीं दे सकता और वो भी लगातार कई दिनों तक . खैर वो आये और
चले भी गए . जरुर नाराज हो गए होंगे . लेकिन कुछ महीने के बाद फिर आये और फिर गाड़ी
की डिमांड और हमने फिर मना कर दिया यह कहकर कि , सर कुछ घंटों के लिए दे सकते हैं , लेकिन दिन भर के लिए और कुछ दिनों के
लिए नहीं हो पाएगा . यहाँ आपके बैच वाले हैं या कुछ और भी अधिकारी गण हैं उनको कहिये . शायद कहा हो लेकिन अब
डिपार्टमेंट का वैसा हाल कहाँ जो राजशाही ठाट अभी तक चले . कश्यप साहब किसी दूसरे डिपार्टमेंट के गेस्ट हाउस
में रुके हुए थे . शाम में उनका फोन आया , उन्होंने जानना चाहा यहाँ कौन – कौन
पोस्टेड हैं जान पहचान वाले . हमने सबका नाम और नंबर बता दिया , मेसेज भी कर दिया
. उनके लड़के की शादी का इंगेजमेंट है चौथे दिन . मुझसे कहा .........इन सभी जान पहचान वालों को मेरी तरफ से निमन्त्रण दे दो .......... मुझे कुछ विचित्र - सा लगा , लेकिन उनका बहुत
दबाव था . मैं कुछ विशेष न बोला, अच्छा- अच्छा बोलकर फोन रख दिया . हमने मंथन किया इस विषय पर
, एक मित्र से चर्चा भी की . वह बहुत हँसा , बोला इंगेजमेंट उनके बेटे की है ,
तुम्हारे कहने से कौन निमन्त्रण स्वीकार करेगा . यहाँ कोई नहीं जाएगा . मैं ने फोन
उठाया, और तुरन्त उनको कहा ............ सर, यह सामान्य
शिष्टाचार के विरुद्ध है आपको अपने बेटे के लिए आशीर्वाद चाहिये इसलिए आप स्वयं आकर लोगों को निमन्त्रण दीजिये , यदि नहीं आ पाते हैं तो कम – से – कम आप स्वयं फोन पर निमन्त्रण का निवेदन कीजिये , तभी लोग आएँगे नहीं तो यहाँ कोई नहीं पहुँचेगा ............ उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था . कोई परिवर्त्तन भी नहीं था उनके स्वभाव में , वही तौर –तरीका जो 25 – 26 साल पहले था , उनके
आचरण में कोई विनम्रता भी नहीं . वो कहने लगे ........ ऐसा करो यार सबके यहाँ जाना
मुश्किल है तुम आज शाम अपने घर में एक पार्टी रख लो और सबको बुला लो , हमलोग भी आ
जाएँगे और उसी पार्टी में सबको निमन्त्रण दे देंगे .............. मुझे बहुत जोर का धक्का लगा .
मेरे मन में ये कैसे – कैसे विचार आ गये . मेरे सामने से पच्चीस – छब्बीस साल पहले की
वो सारी घटना – दुर्घटनाएँ एक – एक कर मेरे उपर चोट करने लगी .....वो मेरे दो हजार
रूपये , बैडमिंटन , ब्रिज , लकड़ी का वाकर , गैस कनेक्सन, मेरे बच्चे का बर्थडे ,
इनका प्रोमोसन , ट्रांसफर , पराठे , एसोसिएशन के साढ़े तीन हजार बकाये के रूपये और उसके बाद हमें ढेर
सारी फजीहतें और धमकी . हम एकाएक कठोर हो गये और फोन पर ही हमने नीति , विनम्रता और
शिष्टाचार की ढेर सारी पाठ पढ़ा दी . हमने कहा ............ सर, ये पार्टी हमारे घर पर सम्भव
नहीं है , आपके बेटे की शादी है आप ही प्री इंगेजमेंट पार्टी दीजिये और उस में सबको
बुलाकर निमन्त्रण दे दीजिये . हम पार्टी क्यों दें ? हमारे बेटे की शादी थोड़े ही है , आप बाहर से आये हैं , आप हमें कहिये अपनी बिल्डिंग के क्लब रूम में आपकी
तरफ से आपके खर्चे से आपके लिए हम आपकी इस पार्टी का आयोजन कर देते हैं . हमारे घर में कोई भी पार्टी बड़ी हास्यास्पद बात होगी ............ हमने अपनी पत्नी और स्वयं के खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर अपनी असमर्थता भी बतायी , जिसमें उन्हें मेरा नकली बहाना पता चल रहा था . उनको हमसे इस तरह के उत्तर की
अपेक्षा न थी , वो जैसे आसमान से गिर गये हों , तुरत सम्भल गये और यह कहते हुए कि
फिर से फोन करते हैं . फिर से उनका फोन नहीं आया . हम इंगेजमेंट पार्टी में गये ,
हमने देखा कोलकाता वाले डिपार्टमेंट से हमलोग सिर्फ तीन लोग थे बाकी उनके रिलेटिव थे
. बाद में कई महीने बाद जब उनके बेटे की शादी हुई , हमें फिर कोई निमंत्रण नहीं मिला .
रिटायरमेंट के पहले हम कश्यप साहेब के ससुराली टाउन में पोस्टिंग पा गये थे लेकिन फिर गाड़ी इत्यादि की कोई सुविधा हमारे तरफ से उनके कहने के बावजूद उनके ससुराल वालों को न मिल पायी . फिर सर डिपार्टमेंटल हेड के रूप में प्रमोट हो गये थे लेकिन सारी पुरानी बातों का हमारा हिसाब वो रखे हुए थे और जब हमें अपने होम टाउन में अपनी पोस्टिंग की जरुरत हुई तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया ........... यार, तुम्हारा काम हम नहीं कर सकते ........... हमें स्वार्थ , क्षुद्रता , घृणा , द्वेष , निकृष्ट व्यापार वृत्ति की तीक्ष्ण दुर्गन्ध आ रही थी . हम उनके हेड ऑफिस के चैम्बर में और रुक नहीं पा रहे थे . उन्होंने चाय ऑफर की थी , लेकिन हमें अपने दादा जी की जीवन जीने की पाठ के शेष अंश फिर याद आ गये . हमने कश्यप साहेब को कहा ........... सर मुझे मेरे दादा जी की कुछ वैसी बातें फिर याद आ रही है कि इस समय अब मुझे यहाँ नहीं रुकना चाहिये , लेकिन दादा जी के पाठ को , जो मेरे स्मृति पटल पर लगातार नर्त्तन कर रही है और बेचैन कर रही है , आज हम नहीं सुनने वाले . आज हम चाय पीकर ही जाएँगे ............ हमने चाय पी और उनको जम कर खरी – खोटी सुनाई , उनको उनकी मूल्यहीनता का अहसास करा डाला , हमने भी तीन दशकों का अपना पूरा हिसाब उनको सुना बराबर कर दिया . मुझे लगा मैं ने कश्यप साहेब के साथ वही बैडमिंटन मैच फिर से खेला हो और मैं ने अच्छे स्मैश , लम्बी - लम्बी रैलियाँ और अच्छी - अच्छी प्लेसिंग जरुर लगाकर उनको परेशान किया हो क्योंकि वो झल्लाहट में नजर आये और यदि मैं न भी जीता हो तो ये मुकाबला कम - से - कम ड्रा जरुर हो गया था .
लेकिन इस तरह के पात्र अन्तरात्मा की नहीं सुन पाते , बहरे हो जाते हैं .
मेरे
मित्र ने जैसा कहा हमने वैसा ही ऊपर में सुनाया . वर्षों बाद कोलकाता की मण्डली का
यह सदस्य अभी - अभी आया था और हम दोनों ने पुरानी स्मृतियों में खूब डुबकियाँ लगाई .
अमर
नाथ ठाकुर , २८ अगस्त , २०२१ , कोलकाता .
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