Saturday, 4 September 2021

मंडल दा

 नौ - दश वर्षों बाद फिर कोलकाता पोस्टिंग पाया हूँ , लेकिन प्रोमोसन पर जूनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड में . मैं यहाँ एडमिन और प्लानिंग का हेड हूँ . पियून से लेकर असिस्टेंट इंजीनियर तक के ऑफिसर का ट्रान्सफर पोस्टिंग कर सकता हूँ . फील्ड से प्लानिंग या प्लानिंग से फील्ड में बंगाल , सिक्किम एवं अंडमान निकोबार में . ड्राफ्ट मैन , क्लर्कों एवं पियूनों का भी ट्रान्सफर एकाउंट्स से कॉरेस्पोंडेंस में या कॉरेस्पोंडेंस से एकाउंट्स में  कर सकता हूँ . मतलब मलाई वाली पोस्टिंग या हरियाली वाली पोस्टिंग या सूखा या रेगिस्तानी  पोस्टिंग का पूरा पॉवर मेरे ही हाथ में  है . मतलब बहुत ही पावरफुल पोस्ट , जैसा लोग समझते थे , इसलिए यूनियनों एवं एसोसिएसनों द्वारा साप्ताहिक - पाक्षिक घेराव  इस पोस्ट वाले ऑफिसर का चलता ही रहता था  . यहाँ कहने की जरुरत नहीं , ज्यादेतर लोग मुझे 'सर' कहकर सम्बोधित कर रहे  हैं . कुछ जो पुराने लोग थे जिन्होंने इस ऑफिस में एक दशक पहले कभी हमें सर नहीं कहा था  , अब इस ऊँचे पोस्ट में देखकर भी लज्जावश सर नहीं कह सकते थे , लेकिन उन्होंने भी हमें आदर पूर्वक स्वीकार कर लिया हुआ है . पुराने लोगों ने पुराने रिश्ते की बात याद दिलाते हुए  बहुत देर तक कुशल - मंगल किया, परिवार के बारे में पूछा . हमने भी पूछा , कुछ के साथ चाय भी पी . इसी क्रम में साँवला - सा एक भद्र स्टाफ आया , बीमार -सा  , सिर के बाल उड़े हुए , शर्ट के दो बटन ऊपर से खुले हुए , अन्दर का मटमैला बनियान दिखता हुआ , फ्लोर में चप्पल घसीटता हुआ, नीचे पैन्ट का कोर कटा हुआ , पान से ओठ लाल - लाल  किये  किन्तु मुस्कुराते हुए ......... सर , आमा के चिन्हते पारछेन, आमि मोण्डल , आपनार पियून छिलाम एई ऑफिसे,  जखन आपनि ४०१ रुमे आगे बोशतेन ( सर , मुझे पहचान पा रहे  हैं, मैं मंडल , आपका पियून था इसी ऑफिस में , जब आप रूम नम्बर ४०१ में बैठते थे पहले )................मैं  कुछ देर तक यादों के झरोखों को खंगालने लगा और उस घोर  कम्युनिस्ट कालीन पोस्टिंग के दिन-दिन  के पल - पल को  स्मृति पटल से जीने  लगा . जैसे ही मुझे देरी हुई उस विस्मृत क्षण को फिर से याद करने में , मंडल जी ने मुझे याद दिलाने के लिए एक घटना का तुरन्त जिक्र कर दिया ........ आपनार मामा ससुर एशेछिलेन जाके आपनि चा सिंघाड़ा रसोगुल्ला खाइये छिलेन .......आमि बाजार थेके कीने एने प्लेटे साजिये छिलाम ....... (.........आपके मामा ससुर आये थे जिनको आपने चाय , सिंघाड़ा , रसगुल्ला खिलाया था ....... मैं ने ही बाजार से खरीद कर प्लेट में सजाकर दिया था ........) वो कलकत्ता पुराना कलकत्ता मेरी नजरों से एक - एक फ्रेम गुजरने लगा ..... मैं खो गया पुराने कलकत्ते के आगोश में ... 

अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में क्लास वन नौकरी की पहली ज्वाइनिंग यहीं कोलकाता में हुई थी . आते ही १८ सप्ताह की फील्ड ट्रेनिंग में भेज दिया गया . इस फील्ड ट्रेनिंग के दौरान कोलकाता और हावड़ा में खूब घूमा ....धर्मतला , एस्प्लेनेड , बड़ा बाजार , टिरेट्टा  बाजार , न्यू मार्केट , बीबीडी बाग़ , सेंट्रल अवेन्यु , बेंटिंक स्ट्रीट , अलीपुर , काली घाट, दक्षिणेश्वर , बेलूर मठ, उलटाडांगा , साल्ट लेक , दमदम , बजबज , उत्तरपाड़ा , हावड़ा मैदान , कदमतला , इच्छापुर इत्यादि . कोलकाता को भली - भाँति जानने में कोई कोताही नहीं बरती . यहाँ के प्लानिंग ऑफिस में फिर रेगुलर पोस्टिंग हो गयी . योगायोग भवन में  अब ऑफिस आने का सिलसिला शुरू हो गया ... ..करीब - करीब समय पर ऑफिस आने लगा  , आकर अपने टेबुल को पोंछा मारना , कुर्सी को पोंछना , उस पर तौलिया झाड़कर फैलाना , ग्लास धोना और ग्लास में पानी लेकर टेबुल पर सजाना , फाइलों को झाड़कर फिर अपने काम में लग जाना . ये सब काम हम अपने कुछ पुराने , अनुभवी , बुजुर्ग और कोलकाता के बंगाली लोकल सहकर्मी , जो हमारे ही हॉल में बैठते थे , को देखकर सीख गये थे . पियून  हमलोगों से एक आध घंटे बाद आता था  और आकर अपनी उपस्थिति पंजी में दर्ज कर कोरीडोर में हमारे हॉल के सामने दरवाजे के किनारे टेबुल पर बैठ जाता  था और अखबार पढ़ता रहता रहता था या ऊँघता रहता था . टेबुल को पोंछना , ग्लास धोना , उसमें पानी देना , फाइलों को झाड़ना इत्यादि का काम उनका नहीं जो एक दिन उसने शुरू में ही बता दिया  था . तो हमने पूछा था वो आखिर क्या काम करेंगे ? हमारे हॉल को सर्व करने वाले  पियून  ने मुझे साफ़ बता दिया था .......घंटी बजाने पर हम आएगा  , फ़ाइल एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जाएगा  , किसी को बुलाना हो तो बुला देगा ............... . वैसे डेढ़ - दो सौ कर्मचारियों की संख्या वाले इस ऑफिस में ऑफिसर के लेवल के हिसाब से सात -आठ ऑफिसर ही हम  जूनियर क्लास वन ऑफिसरों से ऊपर के लेवल के थे लेकिन क्या मजाल कि कोई स्टाफ हमलोगों के बुलाने से भी हमारे हॉल में आ जाए . उल्टे चीफ ड्राफ्ट्समैन , क्लर्क , ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट , कैशियर आदि कभी भी अपने हॉल में हमलोगों को बुला लेता था . कागज , पेन्सिल, पेन , ग्लास , तौलिये , डस्टर आदि के लिए स्टोरकीपर के पास जाना ही होता था , भिजवाता नहीं था , लाइन में लगकर , सिग्नेचर उपरान्त सामान उपलब्ध कराता था . कैशियर तो सैलरी से लेकर हर कोई पेमेंट हमें बुलाकर , लाइन में खड़ाकर ही देता था . क्लर्क महाशय भी ऐसा ही करते थे . ऑफिसर होना मूल्य हीन था . हमलोग कलकत्ते के ऑफिस की इस समाजवादी साम्यवादी परम्परा से वाकिफ हो गये थे और ये हमारे व्यवहार और हमारी सोच का हिस्सा बन गया था . कैंटीन से चाय बांटने वाला आता था , चाय हमारे ग्लास में डालकर , पैसे लेकर चला जाता था . चाय  पीने के बाद ग्लास धोकर उसे फिर अपने ड्रावर में  हम रख लेते थे . . ऐसा नहीं है कि ये  स्टाफ लोग ऑफिस हेड या एडमिन हेड की नहीं सुनते थे , जिनके पास ट्रान्सफर - पोस्टिंग या बिल पास करने का पावर होता था उनकी एक घंटी पर ये दौड़कर जाते थे . वैसे किसी क्लर्क या पियून से कोई काम ऑफिसर वाली धौंस से तो ये लोग भी नहीं ही करा सकते थे . हम अपने ऑफिस हेड को अपना ब्रीफ केस खुद ढोते हुए देखते थे . अपने कमरे में वो आलमीरा खुद खोलकर फ़ाइल निकालते थे . छह बजने के एक आध घन्टे पहले ही ऑफिस खाली हो जाता था . क्लर्क और पियून को लेट से आने के लिए आप कुछ नहीं कह सकते थे , ये सुबह में ऑफिस टाइम के एक आध - घन्टे बाद ही आते थे , अधिकाँश एई,जेई लेवल के ऑफिसर भी यही रूटीन फॉलो करते थे . कुछ तो डेढ़ दो घन्टे तक लेट आते थे और एक डेढ़ घन्टे समय के पहले चले जाते थे .  यहाँ एक कहावत चलता था --- दो गलतियाँ एक दिन में नहीं कर सकते .... ग्यारह  के पहले आना नहीं पाँच के बाद जाना नहीं ....... इसलिए ग्यारह  के बाद ये आते थे याने लेट , और पाँच बजे भाग जाते थे याने जल्दी .............. लंच टाइम आधे घन्टे के बजाय घन्टे - दो घन्टे का भी हो जाय तो कौन टोक सकता था . इस तरह घन्टे , दिनों के काम सप्ताहों , महीने तक भी ये लोग पूरा नहीं करते थे . ऐसे लोग पार्टी करते थे  और ऑफिस के हेड भी उनको कुछ कहने से कतराते थे , यदि ये पार्टी नहीं भी करते थे तो भी पार्टी वालों के फोलोवर होते थे और उनका संरक्षण पाते थे . 

नमस्कार या प्रणाम जैसा अभिवादन सिर्फ हम क्लास वन लोग ही अपने बॉस को करते थे . अपने जैसे कुछ समान समझ वाले सहकर्मियों में ही नमस्कार - पाती चलता था . पियून या क्लर्क  या जेई या ड्राफ्ट मेन इस तरह की परिपाटी को  साम्यवाद आने के साथ ही छोड़ चुके थे . पियून यदि किसी काम से पास आ गया तो सामने कुर्सी पर बैठेगा और तब बात करेगा . यदि हमारा फोन भी इस्तेमाल करेगा तो कोई पूछना - वूछना नहीं , सामने की कुर्सी पर बैठेगा और बात करके टेलीफोन को उसके पोजीसन में किये बिना चला जाएगा . रहम करके नाम में जी अथवा साहेब लगाकर बुलाएगा ........... जैसे मुखर्जी साहेब , सिंह साहेब या सिंह जी ... इत्यादि . परोक्ष में  तो ऑफिसरों  के नाम में जी या साहेब शायद ही कोई लगाता . याद  नहीं कभी कलकत्ते में किसी ऑफिस के कर्मचारी ने हमें 'सर' कहकर बुलाया हो , नमस्कार किया हो . हाँ , जब खड़गपुर में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के रूप में फील्ड में पोस्टिंग हुई थी , तो करीब-करीब सारे स्टाफ 'सर' से सम्बोधित करते थे , नमस्कार से अभिवादन करते थे . क्योंकि वहाँ मैं मलाई वाली पोस्ट पर था , ऑफिस हेड था , उपस्थिति चेक करता था , सबको काम बाँटता था , सारे बिल पास करने का पॉवर भी हमें था , टेंडर करता था , वर्क आर्डर साइन करता था आदि आदि !!!! वहाँ मेरी नाराजगी किसी को नुकशान पहुँचा सकती थी !!!! हमने कई बार मंथन किया आखिर ऐसा क्यों है बंगाल में .........सामान्य परम्परा में आदर देना , सम्मान देना , आदर या सम्मान से बातें करना यहाँ की संस्कृति से गायब क्यों हो गया ? अधिकार के लिए लड़ना , अधिकार की पूरी जानकारी रखना , लेकिन काम न करना , काम को टरकाना , भेदभाव मिटाने के बदले ऑफिसरों से भेदभाव करना आदि भी यहाँ के लोगों का खास चारित्रिक स्वभाव कैसे बन गया ? क्या बंगाल का साम्यवाद अथवा समाजवाद यही है ? हमारे मित्र डे साहब , विस्वास जी , दत्ता जी ने बहुत विस्तार से चीजें समझाईं .


बंगाल की धरती संतों , क्रांतिकारियों के लिए तो काफी उर्वरा रही है  लेकिन किसी कमजोरी वश  अँग्रेज यहाँ पहले आये और अपना जड़ जमा बैठे उस समय यहाँ के भद्र लोक ने ज्यादे प्रतिरोध भी नहीं किया , खैर यह तो इतिहासज्ञों के विवेचना की बात है . उल्टे यहाँ के लोगों ने टूटी - फूटी अंग्रेजी सीख ली और उन अंग्रेजों से चिपकने में अपना सम्मान समझने लगे . साथ में एक दूसरा वर्ग तैयार हो रहा था जो उन कुलीन वर्ग वालों से काफी प्रताड़ित - शोषित हो रहा था . लेकिन अँग्रेजों के रहते ये अपनी आवाज नहीं उठा पा रहे थे  .  आजादी के वर्षों बाद प्रतिरोध - विरोध का  पर्याय नक्सल मूवमेंट यहीं से फला - फूला  ........ नक्सल बाड़ी से .....जो यहीं है उत्तर बंगाल में . और फिर वामपंथी कम्युनिस्ट की सरकार 35-36 वर्षों तक लगातार चलती रही . बराबरी के नाम पर यहाँ की अधिकांश जनता ने साम्यवादी सोच के निकृष्ट पक्ष को  अपना लिया . यहाँ की साम्यवादी जनता ने फिर सीख लिया .....क्रान्ति  , आन्दोलन , हड़ताल करना .... .और चलबे ना , कोरबो ना , कालो हाथ भेंगे देबो, क्रान्ति हबे , जिंदाबाद - जिंदाबाद .. ... जैसे नारों से सड़क, बाजार , होटल , फैक्ट्री , ऑफिस , मैदान को गुंजायमान कर दिया . गली - मुहल्लों , वार्ड , पंचायत , म्युनिसिपेलिटी , नगर निगम आदि हर जगह साम्यवादियों का दबदबा हो गया . हर जगह गली - गली , घर - घर , ऑफिस - ऑफिस लाल झण्डे लहराने लगे . फैक्ट्रियाँ बंद होने लगीं , व्यवसायी समुदाय दुखी होने लगे और पलायन करने लगे . साम्यवादी विचारधारा से इतर विचार रखने वाले चुप रहने में भलाई समझने लगे , बंगाली भद्र लोक गुमशुम रहने लगे . गाँवों की जमीनों , शहर की खाली जमीनों पर लाल झण्डे खड़े कर  दिए गये .  इन सबके बावजूद गैर बांग्लाभाषी लोगों को कोई दिक्कत नहीं हुई . बंगाल की भूमि सबको बिना भेद - भाव के आत्मसात करती गयी . बिहार, यूपी , उड़ीसा आदि राज्यों के मजदूर वर्ग के लोग उस समय यहीं भरण - पोषण का आसरा पाते थे , सभी बाहरी मजदूर लाल झंडा थामते थे , उनको वोट देते थे और साम्यवादी नेताओं का संरक्षण पाते थे . कलकत्ता तो लघु भारत होता था सभी भाषा - भाषी के लोग यहाँ बँगला या हिन्दी बोलकर योगायोग करते थे .

उस समय साम्यवाद के नशे में बंगाल झूमता था . हर जगह बराबरी के  व्यवहार का नाटक होता था , बराबरी की चर्चा होती थी . बराबरी का व्यवहार होना जितना मनमोहक सुनने में लगता है उतना ही यह चुभने वाला होता था. अधिकतर  समय  तो लगता था , आप ऑफिसर क्लास में हैं तो इसलिए आपके साथ भेद - भाव हो रहा है . आप अपने रूखे  व्यवहार के लिए तुरन्त झिड़की खा जाएँगे , आपको धमकी मिल जाएगी . आप किसी मजदूर वर्ग के व्यक्ति  से बहस नहीं कर सकते ,  उसके  कर्त्तव्यों का उसको पाठ नहीं बता सकते . जो उसने कहा है वही सत्य मानना पड़ेगा  . मगर अपना अधिकार उसे सब पता है . आप किसी दुकान में सम्मान से बिठाये जाएँगे क्योंकि वह  व्यवसायी है उसे अपने व्यवहार से मुनाफ़ा कमाना है लेकिन उसी सम्मान की अपेक्षा आप रिक्शे वाले से , ऑटो वाले से या किसी कुली अथवा किसी मजदूर से नहीं कर सकते . दुकान वाले आपको पसंद नहीं तो आप दूसरे दुकान में जा सकते लेकिन रिक्शे या मजदूर एकता के सामने आप विवश हैं आप उससे ही सेवा लेने के लिए विवश हैं , कोई और उसके कम्पटीशन वाले आपके पास नहीं आएँगे और न आने दिए जाएँगे . आप बन्धक बना दिए जाएँगे . पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर सकती जब तक कि पार्टी ऑफिस या किसी पार्टी वाले से कोई  संकेत नहीं मिला हो . मजदूरों के आपस के झगड़े तो किसी भी हालत में पार्टी वाले ही सुलझाएँगे . भाई - भाई का झगड़ा , पति - पत्नी का झगड़ा , पड़ोसियों से झगड़ा सब पार्टी ऑफिस के अधिकार क्षेत्र का मामला हो गया  . फुटपाथ पर काम करने वाले , ठेले वाले , रिक्शा वाले , रेलवे स्टेसन के  कुली , हाट - बाजारों में सब्जी - फल बेचने वाले , बस के ड्राईवर , खलासी , स्लम में रहने वाले , दुकानों में सेल्स मैन , होटलों में बैरे , रसोइये , फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर , कर्मचारी गण , ऑफिस में क्लर्क , चपरासी , कंस्ट्रक्शन साइटों पर काम करने वाले अधिकाँश लोग सीपीआईएम , सीपीआई आदि साम्यवादी पार्टियों के सदस्य हो गये .  ये   पार्टी के लोग कहे जाने लगे . कुछ लोग कांग्रेस कांग्रेस भी करते थे लेकिन उनकी संख्या कम थी . कहीं भी आप निकल जाएँ छोटे - छोटे होटलों, दुकानों में , ऑफिसों में , बैंकों में , टेलीफोन ऑफिसों में ........घेराव , नारे बाजी , लाल झण्डों की कतार  आपको दीख ही जाएँगे .  

साम्यवाद का नंगा स्वरूप कलकत्ते की सड़कों पर , ऑफिसों , फैक्ट्रियों में दीखता तो था  ही , उसे महसूस भी किया जा सकता था  . दत्ता साहेब बाहरी नए लोगों को एक  मजेदार उदाहरण से यहाँ के साम्यवाद समाजवाद  का चित्रण करते थे  . मान लीजिये आप कलकत्ते की सड़क पर पैदल चले जा रहे हैं और किसी दूसरे आदमी से जो सामने से आ रहे होते हैं उनकी आप से टक्कर हो जाती है , और आप दोनों गिर जाते हैं . सामने वाला तुरन्त उठेगा , आपको आदरपूर्वक उठाएगा ,  आपका धूल झाड़ेगा और अफ़सोस प्रकट करेगा कि उससे गलती हुई . लेकिन यदि आप साइकिल से जा रहे हैं और सामने वाले से , जिनकी नजर सामने नहीं होती है, याने उनकी गलती से  टकरा जाते हैं और आप दोनों ही गिर पड़ते हैं तो सामने वाला उठेगा और एक - आध गाली देगा , नसीहत देगा साइकिल ठीक से चलाने का और आपको घूरते हुए अपना शर्ट झाड़ते हुए चला जाएगा . लेकिन यदि आप मोटर साइकिल से जाते हुए  सामने वाले की गलती से उससे टकराते हैं और दोनों गिर जाते हैं तो सामने वाला गाली देते हुए उठेगा , दो - चार झापड़ आपको लगाएगा , चीत्कार करेगा , कुछ लोगों की भीड़ इकट्ठा कर देगा . आपको कुछ दूसरे लोग भी गाली देंगे  , कोई आपकी मोटर साइकिल पर पैरों से ठोकर मारेगा , आप काफी डर जाएँगे , आपकी धड़कन तेज हो जाएगी , भीड़ आपसे माफी मनवाएगी और फिर ठीक से गाड़ी चलाने की नसीहत देकर भीड़ छँट जाएगी . लेकिन यदि आप कार से जाते हुए सामने वाले की गलती की वजह से उससे टकराते हैं , आप जल्दी से ब्रेक लेते हैं , गाड़ी रोक आप जल्दी से उतर सामने वाले को उठाते हैं , उसकी धूल झाड़ते हैं , उसकी गलती होने के बावजूद आप ही सॉरी भी बोलते हैं , लेकिन गिरने वाला आदमी चोट नहीं लगने पर भी चोट का बहाना कर चीत्कार करेगा , गाली देते हुए आपकी तरफ झपट्टा मारेगा , भीड़ जमा कर देगा , थाने की तरफ आपकी गाड़ी ले चलने के लिए कहेगा , आपके ऊपर लप्पड़ ,थप्पड़,  झापड़ की बौछार हो जाएगी , खींचा - खींची में आपकी शर्ट का कालर , पॉकेट फाड़ देगा , कार को लोग पीटना शुरू कर  देंगे , कोई हेड लाईट तोड़ देगा, कोई साइड मिरर तोड़ देगा , कोई खिड़की के शीशे तोड़ देगा , कोई कार की चाभी लेकर  चला जाएगा , कोई आपका लाइसेंस ले लेगा , आप रोएंगे , गिड़गिड़ाएंगे फिर पांच सौ या हजार पे बात बनेगी और आप ये फाइन देकर बच पाएंगे . ये है कलकत्ते का साम्यवाद , स्टेटस में जितना अंतर आपकी उतनी पिटाई , उतना ज्यादे दण्ड और उतनी ज्यादे ही फजीहत .

हमारा ऑफिस इस साम्यवाद से अछूता कैसे रहता . इस साम्यवाद को अपनाने में फायदे ही फायदे ही थे , काम कम करना , ऑफिस आने - जाने के समय में आजादी . कोई डर नहीं , कोई मेमो मिलने का  ख़तरा नहीं , साथ ही पार्टी वाले आपको मनचाही पोस्टिंग भी करा देंगे . हमें ड्राइंग के लिए ड्राफ्ट मैन के पास जाना होता , फेरो प्रिंट के लिए फेरो प्रिंटर के पास , ड्राइंग की एंट्री के लिए चीफ ड्राफ्ट मैन के पास , फिर फील्ड ऑफिस में ड्राइंग भिजवाने के लिए क्लर्क के पास , हम खुद चले जाते . उन्हें बुलायें , वो न आयें तो,  इस असम्मान के डर से बचने के लिए अपने को पूरा ढाल लिया था . लेकिन इस क्रम में मेरा  इन कर्मियों से अच्छा बंधुत्व हो गया . मैं उन लोगों के पास जाता वो लोग अपनी कुर्सी से भले ही न उठते , लेकिन हमने महसूस किया मेरे जाने से वो खुश होते और अपनी मुस्कान और मीठी बोली से  मेरे साथ पेश आते . 

योगायोग भवन में कई महीने मेरी पोस्टिंग को हो गये थे .  एक दिन फोन पर कोलकाता में रहने वाले मेरे ममेरे ससुर ने अपने एक और रिलेटिव के साथ मेरे ऑफिस में मेरे से मिलने की इच्छा व्यक्त की . मैं बड़ा परेशान हो गया . मेरे  अपने गाँव में ,  ससुराल में लोग जानते थे  कि मैं क्लास  वन ऑफिसर हूँ . अब तो मेरी मिट्टी पलीद होने वाली है , मैं ने सोच लिया अपनी इज्जत अब बचने वाली नहीं . जब मेरे मामा जी देखेंगे ऑफिस में ये हाल कि हम उन्हें चाय - पानी भी नहीं करा सकते तो वो क्या सोचेंगे . एक क्लास वन ऑफिसर की औकात जान लेंगे . मेरे क्लास वन ऑफिसर की बात पर वो प्रश्न चिह्न लगा हर जगह प्रचार - प्रसार कर देंगे . कोलकाता में मैं इतने महीने बाद तक भी इस हीन भावना से ग्रस्त था . मैं बहुत चिंतित था . अपने कुछ सहकर्मियों से चर्चा भी की . सबने कहा ......भई , ऑफिस में जैसे ही आयें बाहर उस दास होटल में चले जाना ....वहाँ से चाय - पानी करा के ले आना , यहाँ लोग ऐसा ही करते हैं . हमें  ये उचित नहीं प्रतीत हुआ . यदि वे गेस्ट लोग हम - उम्र होते तो ठीक था , वो बुजुर्ग थे अतः उनको ऑफिस में बैठा कर ही चाय - वाय कराना वाजिब था . कलकत्ते में वहाँ के अनुरूप ढालने के बाद भी मेरे मन में क्लास वन का नशा अभी भी था . ऑफिस पियून की बात  कि वो सिर्फ फ़ाइल ढोएगा मुझे परेशान कर रही थी . उसके बाद हमने याद किया ........उस दिन सिंह साहेब ने बार - बार  घन्टी बजाई तो भी वो नहीं आया था, जब बाहर जाकर देखा तो हमलोगों का पियून मण्डल टेबुल पर बैठा ऊँघ रहा था , कहने पर उसने  सिंह साहेब को झिड़क दिया था ........अरे साहेब , परेशान मत कोरिये .... हमको  गुम (नींद ) आ रहा  है . इस घटना से मेरा तो विश्वास ही हिल गया था , मण्डल दा  से कोई उम्मीद नहीं कर सकते कि वो कोई हेल्प करेगा . शाम हो रही थी मैं हॉल से बाहर निकला , मंडल दा से आँख मिल गयी  , मंडल ने मुस्कुरा दिया , मेरी हिम्मत बढ़ गयी  .  मैं ने कहा अरे मण्डल दा कैसे हैं ? कहा ......... ठीक है . फिर मैं ने सोचा अच्छा मौक़ा है इसे रिक्वेस्ट कर के देख लें . मैं ने कहा ........... मंडल दा , कल मेरे मामा ससुर आएँगे साढ़े दश - ग्यारह बजे , उन्हें चाय - वाय कैसे पिलाएँगे ? बिना किसी विलम्ब के फट से बोला  ...... कोर देगा . मैं अचरज में था , ये कैसे हाँ बोल गया , कहीं गलती से तो नहीं बोल गया  . मैं ने फिर पूछ पक्का होना चाहा , उसने फिर कहा .......हम तड़ा- तड़ी आ जायगा ...... कोर देगा . मैं निश्चिन्त महसूस करने लगा . लेकिन मैं रात में भी सोच सोच कर  परेशान जरूर होता रहा कि कहीं इस मंडल के  ऊपर साम्यवादी सोच आकर उसके विचार को बदल न दे . तो फिर  क्या ........नीचे उतर दास होटल से उनको चाय-पानी करा देंगे ......... मैं ने ऐसा सोच अपने को दिलासा दिला दिया  .

अगले  दिन मैं ने देखा , मंडल दा  अन्य दिनों की अपेक्षा पहले आ गया है और उसने मेरे टेबुल को  बढ़िया से पोंछ दिया है, मेरी कुर्सी को और सामने रखी तीनों - चारों कुर्सियों को भी पोंछ दिया है , तौलिया को बढ़िया से झाड़कर मेरी कुर्सी पर कायदे से फैला दिया है , फ़ाइलों को सजा दिया है , ग्लास वगैरह को साफ़ करके तैयार कर रख लिया है , कुछ और ग्लास इकट्ठे कर लिया है . मेरे सीट के ऊपर के पंखे को ऑन कर दिया है , खिड़की के परदे को ठीक - ठाक कर दिया है . जैसे ही मेरे मामा ससुर आये , मंडल दा ने उन्हें पानी पिलाया , मेरे से टाका लेकर बाजार से  सिंघाड़े , रसगुल्ले और स्पेशल चाय लाकर आदरपूर्वक सर्व किया  , फिर मेरे रिलेटिव से पूछ कर उनकी पसन्द का पान भी लाकर खिलाया , टेबुल साफ़ किया और सभी जूठे ग्लास को धोकर सही जगह में रखा भी . ऑफिस में मंडल के द्वारा अतिथियों का आव - भगत करते देखकर दुसरे सभी ऑफिसर  दंग थे, मैं तो स्वयं इसे कल्पनातीत समझ रहा था . मैं ने मंडल दा को कहा  ...... मंडल दा , धन्नोबाद . फिर मंडल दा ने खुद कहा ............ साहेब , उन लोगों का काज हम इसलिए नहीं कोरता  कि वो लोग ओफिसियरी देखाता है ... वो हमको पसन्द नहीं ...... मैं आज अपने को धन्य समझ रहा था कि मैं ने अपने व्यवहार से अपने को विनम्र बना कर रखा है . मुझे लगा कि कलकत्ते में मैं यूनियन वालों से निपटते हुए  काम कर लूँगा .    

खड़गपुर में चार साल काम करने के बाद कुल आठ - नौ सालों के बाद बंगाल से मेरा  ट्रांसफर लखनऊ हो गया , अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदाई लेकर लखनऊ में  ज्वाइन किया . वहाँ जाते ही पता चला क्लास वन की नौकरी क्या होती है .  ड्राईवर नमस्कार करता था , गाड़ी का गेट खोलता था , बंद करता था , पियून ऑफिस में पहुँचने के पहले टेबुल पर पोंछा लगा  चुका होता था , ग्लास धोना , पानी सर्व करना , बाजार से नाश्ते - पानी लाना , यहाँ तक कि खाने के बाद प्लेट हँटाना - धोना सब काम पियून करता था . चैम्बर में घुसते ही पंखे का स्विच ऑन करना , एसी चलाना , बैग गाड़ी तक पहुंचाना भी  उसका काम होता था . आप बाजार से पर्सनल काम भी किसी से करवा सकते थे , और हर स्टाफ बिना झिझक ऐसा किया करता था . आप ऑफिस में किसी भी क्लर्क , पियून , एई , जेई, एओ  , ड्राफ्ट मैन को बुला सकते थे . जब तक न बोलें कुर्सी पर नहीं बैठेंगे . आप सेक्शन में राउंड ले लें , हर कोई अपनी कुर्सी से खड़ा हो जाएगा सम्मान में . ये हम कहाँ आ गये थे किस दुनियाँ में , हम सातवें आसमान में उड़ने लग गये थे , कितना आनन्द आ रहा था !!!! ऑफिस का वर्क कल्चर ऐसा कि आप स्वर्ग की नरक से तुलना नहीं कर सकते हैं ..... लखनऊ एवं कोलकाता की तुलना ही नहीं हो सकती .  क्या आकाश और पाताल में कोई तुलना होती है . कोलकाता में काम नहीं करने के अनेक बहाने होते थे , यहाँ स्टाफ बहाना ढूंढ़कर काम कर लेते थे . हम निकृष्ट साम्यवादी कल्चर से दूर कहाँ आ गये थे . हम तो अपने स्टाफ से बिना उम्मीद के रहते थे लेकिन हमें जो काम और व्यवहार का आउटपुट मिलता हमारी सोच से कई गुना ज्यादे होता . हम बड़े आनंद में यहाँ पांच साल बिता गये . मुझे अब पता चल गया था ऑल इंडिया कैडर वाले ऑफिसर कोलकाता पोस्टिंग क्यों नहीं चाहते . कोलकाता नरक होता है . इस बीच मेरा फिर प्रोमोसन हो गया और मेरी पोस्टिंग का  आर्डर पुनः कोलकाता के लिए आ  गया .  प्रोमोसन की खुशी में हमने सोचा ही नहीं कि फिर उसी कोलकाता में ज्वाइन करने जा रहे हैं  , लेकिन ओफिसियरी लखनऊ  को समर्पित कर विनम्रता के साथ पुनः मैं ट्रेन का टिकट ले चुका था . 


 कोलकाता में जॉइनिंग के बाद आज जब मण्डल दा ने मेरे मामा ससुर वाली बात बतायी तो मुझे मण्डल दा द्वारा कही गयी वह बात भी  याद आ गयी कि .......... साहेब आपका काम हम इसलिए कर देता है कि आप हमारा जैसा ही रहता है और हमारा जैसा ही  लगता है , आप ओफिसियरी नहीं झाड़ता है ...........मैं  ने मंडल दा को पास बुलाया , मैं कुर्सी से उठ टेबुल के सामने आ गया .....और  फिर मंडल दा को  लगा लिया ...

एडमिन सेक्सन वालों के सामने अपनी इच्छा व्यक्त की  कि मण्डल दा को बहुत  फैमिली प्रॉब्लम है , बीमार भी रहता है , उसे साल्ट लेक पोस्टिंग दे सकते हैं ? साल्ट लेक का आर्डर निकलते ही मंडल दा आँखों में आँसू लिए मुझे धन्यवाद देकर अविश्वास भरी नजर से मुड़-मुड़ कर देखते हुए  मेरे चैम्बर से बाहर जाते हुए दीख रहे थे .

 मैं मंडल दा के मूल मन्त्र को याद कर वामपंथी कलकत्ते की  फिर से इस नयी यात्रा के लिए आशा के साथ कूच कर गया था .


अमर नाथ ठाकुर , 4 सितम्बर , २०२१ , कोलकाता .

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