Monday, 11 November 2013

ये जिंदगी भी क्या जिंदगी है भाई




कितने ईमानदार हैं हम भाई ये देखो ,

अपनी सारी बेईमानी का एक-एक हिसाब हम हैं रखते ।

हम कितने सत्यवादी हैं भाई ये देखो ,

अपने झूठ का पूरा पुलिंदा खोल कर हम हैं बताते ।

ये साबुन भी घिस – घिस कर कितना गंदा हो गया भाई ,

बार – बार हमारी – तुम्हारी गंदगी धोते - धोते ।

ये जिंदगी भी क्या जिंदगी है भाई ,


जो बची है पूरी की पूरी बार – बार भी मर के । 



अमर नाथ ठाकुर , 8 नवंबर , 2013, कोलकाता । 

Tuesday, 29 October 2013

ट्रांसपेरेंसी

          -1-

ऊंची , मोटी , रंगीन , दीवारों वाले घर के अंदर की बातें ।
एँड़ियों पर  तनकर  , उचक – उचक कर , 
खिड़कियों और दरवाजों की खांचों से झाँककर ,
फुस – फुसी ध्वनि को सुनकर ,
धुंधले दृश्य को देखकर ,
बिखरी कड़ियों को सजाकर ,
लिख डालते थे शोध ।
कल्पना , अंदाज़ , संभावना ,
तर्क से परिपूर्ण बोध ।
रहस्य – रोमांच के आवरण से
जैसे बीज़ से अंकुरित पौध ।

        -2-

तेज़ हवा , वारिश और तूफान
क्रांतिकारी भूकम्प से हुई जब कम्पायमान
कबके उतर गए रंग बेजान ।
निकलने लगीं पपड़ियाँ ।
दीखने लगी  खुरदरी  ईंटें , दर्जनों सूराखें
और चौड़ी – चौड़ी दरारों की धारियाँ ।
ढहते कोने – किनारे ।
और स्पष्ट होते जाते घर के जीवंत –दृश्य के नज़ारे ।
नज़र आते बंदर – बाँट , लूट – खसोट
और भूत - भविष्य की योजना सारे – के - सारे ।
आ जाती है जब ट्रांसपेरेंसी
होता रहस्य का पर्दाफाश ।
नज़र आने लगती है दिशाएँ ,
पाताल और आकाश ।


अमर नाथ ठाकुर , 29.10.2013 , कोलकाता । 

Thursday, 24 October 2013

अशर्फ़ियाँ ढूँढती सरकार उन्नाव में



राज नेता समय गँवाते कांव – कांव में ।
राष्ट्र को छोड़ डगमगाती नाव में ।
मुंगेरी लाल के हसीन ख्वाब में ।
अशर्फ़ियाँ ढूँढती सरकार उन्नाव में ।
फिर वादे होंगे अगले चुनाव में ।
मंहगाई फुनगी छूती , किलो बिकता पाव में ।
नेताओं ने नमक डाली है घाव में ।
सब कुछ पढ़ लो भाई उसके हाव – भाव में ।
जनता अब आ रही ताव में ।
जाग - जाग भाई शहर में और गाँव में ।
यदि समय बिताना है अगला पाँच बरस छांव में ।
लगा दो सब कुछ इस बार दांव में ।
बदल डालो व्यवस्था , मिटा डालो गंदगी !
कूद पड़ो चुनाव क्षेत्र में , हे बहना , हे संगी !


अमर नाथ ठाकुर , 23 अक्तूबर , 2013 , कोलकाता । 

अव्यवस्था का कर दो तार-तार

घोर अव्यवस्था , चरम भ्रष्टाचार ।
लूट-खसोट , सीना जोरी का बाज़ार ।
चोरी – डाका , मार-काट का संसार ।

दुरात्कारियों का आतंक , नारियों का बलात्कार ।
आशाओं वाले बाबा करते शील हरण का व्यापार ।
आश्रम में होते गोरख धंधे , मंदिर-मस्जिद-गिरिजा में व्यापार ।
संसद में चलते आरोप-प्रत्यारोप , गाली-गलौज की बौछार ।

कोई खेल लूटता , कोई फोन का करता बंटाधार ।
कोयले से मुँह काला किया , चारा पहले ही गए डकार ।
रेल तेल सब गए , हेलिकॉप्टर का भी हुआ बेड़ापार ।

ठेका पाने का सिर्फ कमीशन ही बना नया आधार ।
कहीं मिलावट , कहीं जमाखोरी का पूरा –पूरा बाज़ार ।
प्याज़-पेट्रोल सत्तर- अस्सी के हुए , जनता करती हाहाकार ।
जन - सेवा व्यवसाय बना , नैतिकता से नहीं कोई सरोकार ।

आँख दिखाते , सीमा लांघते उत्तर में चीनी बारंबार ।
पश्चिम में गोली चलती , भीतर में माओवादियों की बौछार ।
वोटों का ध्रुवीकरण कराते जिससे अगली उनकी हो सरकार ।
जाति समीकरण का सूत्र बनाते , समरसता पर करते प्रहार ।
देश टूटता , समाज बिगड़ता , और बंट रहा परिवार ।

हत्या  होती  प्रतिदिन , आम जन  हुआ लाचार ।
जनता मालिक रोती जार – जार अपनों से गई हार ।
कहीं भगदड़ में सौ मरते , दंगों में हज़ार – हज़ार ।
तिस पर प्रकृति का भी  कहर बरपता बार – बार ।
आज ओड़ीशा तड़प रहा , कल सिसका था केदार ।

हे ईश्वर विप्लव मचा दो , अव्यवस्था का कर दो तार – तार ।
राम – राज्य को सार्थक कर दो , हे सृजनहार ! अब नहीं इंतजार ।
न कोई भय रहे , न कोई आतंक हो , न कोई लाचार – बीमार ।
सत्य और ईमान की पूछ हो , सपने हों साकार ।
पढ़ा – लिखा समाज हो , क्यों कहीं हो दुर्विचार ।


अमर नाथ ठाकुर , 22 अक्तूबर , 2013, कोलकाता । 

Wednesday, 9 October 2013

रक्त-बीज़ मर्दन करूँ

      -1-

नाचूँ , गाऊँ ,  भजन करूँ
शीश झुकाऊँ , नमन करूँ  ।
आशीष मिले तुम्हारा
तुम पर सब कुछ अर्पण करूँ ।
रूप , गुण मिले मुझे तुम्हारा
तुम्हारी प्रतिमा का दर्पण बनूँ ।
दुखियों की सेवा करूँ
गीत तुम्हारा मनन करूँ ।
दीनों पर सर्वस्व लुटाऊँ
कुविचारों का दमन करूँ ।

        -2-

असत्य अब लहलहाने लगा
क्यों अब सहन करूँ ।
हिंसा प्रति-हिंसा  गरमाने  लगी
क्यों अब भी मलिन रहूँ ।
लूट शिखर छू चली
क्यों अब भी भक्षण बनूँ ।
भ्रष्टाचार हुंकारने लगी
क्यों अब भी दोहन भरूँ ।
नारियां मान गँवाती रही
क्यों तिस पर अब क्रंदन करूँ ।
(सीमा पर आतंक-दुन्दुभि भरने लगा
क्यों अब भी नींद को वरण करूँ ।) 

          -3-

चण्ड - मुण्डों की भीड़ सजने लगी है
क्यों न अब भी भय का दलन करूँ ।
महिषासुर को काट गिराऊँ
और रक्त-बीज़ मर्दन करूँ ।
सज़ा लूँ तिलक भाल पर
और गदा-चक्र-धनुष धारण करूँ ।
शुम्भ-निशुम्भ को मार मिटाऊँ
मधु-कैटभ संहार-कारण बनूँ ।
चंडी बनूँ , दुर्गा सजूँ
काली बन अव्यवस्था का रक्त-पान करूँ ।

......... रक्त-बीज़ मर्दन करूँ ।



अमर नाथ ठाकुर , 9 अक्तूबर , 2013 , कोलकाता ।
(संशोधन 9 अक्टूबर 2016 , मेरठ )

Tuesday, 1 October 2013

हिन्दी पखवाड़े के समापन समारोह पर प्रधान मुख्य लेखा नियंत्रक , पश्चिम बंगाल सर्किल के कार्यालय , कोलकाता में मुख्य-अतिथि के तौर पर दिनांक 30 सितंबर, 2013 को मैं आमंत्रित था । वहाँ मेरे दिये दिये गए भाषण के अंश :



भाषा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम होती है । नृत्य की भाषा अलग होती है । लोग इशारों में भी बात करते हैं । लेकिन यदि भाषा के प्रयोग में कान का प्रयोग हो तो फिर अभिव्यक्तियों के सम्प्रेषण की गति असीमित रूप से बढ़ जाती है । कल्पना करें कि टेलीफोन , सिनेमा , टीवी इत्यादि की क्या उपयोगिता रह जाएगी यदि ध्वनिमय भाषा नहीं हो । हमारी विकास की गति अवरुद्ध हो जाएगी । ये दुनिया , ये ब्रह्मांड अर्थहीन हो जाएगी । ये शहरीकरण , ये वैश्वीकरण सब भाषा पर निर्भर हैं। अतः अपनी भाषा के उन्नयन और संवर्धन की बात हम करते हैं ।
भाषा की मधुरता किसी को मित्र बना ले , भाषा की कठोरता किसी को शत्रु बना ले ।
भाषा देश की अक्षुण्ण अखंडता  के लिए आवश्यक है ।
भाषा विकास  के लिए जरूरी है । इसलिए तो कहते हैं – एक देश , एक संविधान , एक झण्डा , एक भाषा ।
भाषा हमारे जीवन-मरण से जुड़ी हुई है । इससे विलगाव संभव नहीं है । भाषा हमारी अस्मिता से जुड़ी हुई है । तभी तो हम अपनी भाषा को बचा कर रखते हैं । देखिये अङ्ग्रेज़ी में एक कवि क्या कहता है :   
If you don’t breathe ,
There is no air .
If you don’t walk ,
There is no earth .
If you don’t speak ,
There is no earth .
यही कारण है की हम अपनी भाषा को बचा कर रखते हैं ।
भाषा में जीव जैसे कुछ गुण हैं । भाषा जन्मती है । भाषा मिटती है या यों कहें की मरती है । भाषा लुटती है । भाषा विलुप्त होती है । भाषा मृतप्राय हो जाती है ।
हिंगलिश बोलचाल की एक नई भाषा बन गई है – हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी ( इंगलिश ) के संयोग से । मोबाइल पर वार्ता ( chatting ) के लिए एक नई संकेतात्मक भाषा बन गई है । जरूरत के हिसाब से भाषा बन जाती है ।  जरूरत के हिसाब से भाषा बनती-बिगड़ती है । कोई भाषा कमजोर नहीं होती । कोई भाषा गरीब नहीं होती । कोई भाषा स्वयं में सम्पन्न नहीं होती । भाषा को ऐसा हमलोग बनाते हैं । भाषा हमारी वजह से कमजोर बन जाती है । भाषा हमारी वजह से गरीब बन जाती है । भाषा को हम ही अपनी रचनाओं से सम्पन्न बनाते हैं । फिर, सम्पन्न भाषा असंपन्न भाषा को निगल भी  जाती है । सम्पन्न समुदाय की भाषा अन्य समुदाय पर थोप दी जाती है । कभी सरकारें भाषा थोपती हैं । पूर्वी साइबेरिया में ऐसी ही सरकारी नीति है कि लोग राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय भाषा का ही प्रयोग करें । इससे वहाँ की प्रजातियों में बोली जाने वाली भाषाएँ विलुप्त – सी होती जा रही हैं ।  भाषा और कई  वजहों  से विलुप्त होने लगती है । शहरीकरण , वैश्वीकरण , लोगों का एक जगह से दूसरी जगह विस्थापन या पलायन  , सैनिक हस्तक्षेप , धार्मिक प्रचार-प्रसार के लिए लिये गए उपाय इत्यादि ऐसे कारण हैं जो भाषाओं को विलुप्त करने , भाषाओं के मरने अथवा भाषाओं के मृतपाय हो जाने के कारण बनते हैं ।
क्या आपने कभी सोचा है कि भाषाओं के इस क्षरण के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं । अधिकांश भाषाएँ लिखित रूप में नहीं हैं , ये डोकुमेंटेड नहीं हैं अतः इन भाषाओं में पोषित ज्ञान एवं संस्कृति का अथाह भंडार हम खो देंगे । हमारी ऐतिहासिक विरासत , हमारा दर्शन , हमारा जीवन-मुल्य जो इसमें समाहित है सब-के-सब हम एक झटके में खो देंगे । फिर मुल्य-रहित , संस्कृति-विहीन , विरासत- रहित जीवन जीने का क्या अर्थ रह जाएगा । हम अनुशासन हीन , असभ्य और अराजक समाज का हिस्सा बन जाएंगे ।
और चूंकि हमारा जीवन-मरण भाषा पर निर्भर है , इसलिए हम भाषा को कभी-कभी माँ का दर्जा भी  देते हैं । भाषा के साथ हमारा भावनात्मक लगाव हो जाता है । यह लगाव इतना ज्यादा हो जाता है कि हम अपनी भाषा के लिए लड़ने-झगड़ने लगते हैं । कभी-कभी तो भाषा के लिए खून-खराबा तक कर लेते हैं और कभी-कभी तो जान की बाज़ी तक लगा बैठते हैं जबकि यह दंगे का रूप ले लेती है । भाषा का अपमान अपना अपमान अपनी माँ का अपमान समझ बैठते हैं ।  देखिये विलुप्त होती मृतपाय-सी इवेंती (Eventi ) भाषा के एक कवि अलितेत नेमतुश्किन इस निम्नकथित कविता में क्या भाव व्यक्त कराते हैं :

If I forget my speech,
All the songs that my people sing ,
What use are my eyes and ears ?
What use is my mouth ?

If I forget the smell of the earth ,
And do not serve it well ,
What use are my hands ?
Why am I living in the world ?

How can I believe the foolish idea ,
That my language is weak and poor ,
If my mother’s last words
Were in Eventi ?

कवि महोदय अपनी भाषा इवेंती के बोलने वाले में शायद इने-गुने अंतिम सदस्यों में थे । इनकी वेदना और इनका लगाव इनकी इन शब्दों के द्वारा समझा जा सकता है ।

कहीं मुझे किसी भाषा वैज्ञानिक के माध्यम से पढ़ने को मिला कि पूरी दुनियाँ में करीब 7000 भाषाएँ बोली और समझी जाती हैं । इनमें से आधी से ज्यादा इसी शताब्दी में विलुप्त हो जाने की कगार पर हैं । औसतन हर दो सप्ताह में एक भाषा मर जाती है , या विलुप्त हो जाती है । पूरी दुनिया में पाँच ऐसे क्षेत्र हैं जहां भाषाएँ बड़ी तेज़ी से विलुप्त होती जा रही हैं – उत्तरी औस्ट्रेलिया , मध्य-दक्षिण अमेरिका , उत्तरी-अमेरिका का प्रशांत-सागरीय इलाका , पूर्वी साइबेरिया , एवं ओकलाहोमा तथा दक्षिण-पश्चिम अमेरिका का क्षेत्र । ये तथ्य नेशनल जीयोग्राफिक सोसाइटी एवं लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फोर इनडेंजर्ड लैंगवेज़ के गहन फील्ड-शोध एवं असंख्य सांख्यिकीय विश्लेषणों पर आधारित है ।

स्वार्थमोर कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर श्री के डेविड हैरीसन बताते हैं आधी से ज्यादा भाषाएँ लिखित रूप में प्रकट नहीं की जा सकती हैं इसलिए इस पर खतरे की घंटी है । आगे बताते हैं – औस्ट्रेलिया में 231 भाषाएँ वहाँ की आदिम प्रजातियाँ बोलती हैं और जो विलुप्त होने की कगार पर हैं । उनके ये मनोरंजक तथ्य देखिये । मागातिके एवं यावुरु भाषाओं के बोलने वाले सिर्फ तीन-तीन लोग बच गए हैं । अमुरदाग भाषा को बोलने वाला तो सिर्फ एक व्यक्ति जीवित है । क्या पता , ये शोध पुराना है , हो सकता है मेरे इस  भाषाण के समय तक ये तीनों भाषाएँ काल कवलित हो गई हों ।

प्रोफेसर आगे बताते हैं – आनदेस पहाड़ियों एवं आमेजन बेसिन में 113 भाषाएँ बोली जाती थीं जो स्पेनिश और पोर्चुगीज़ भाषाओं के द्वारा निगली चली जाती जा रही हैं ।  अमेरिका के उत्तर-पश्चिम पठार इलाके में अङ्ग्रेज़ी के डोमिनेंस की वजह से वहाँ की 54 आदिम भाषाओं पर खतरा मंडरा गया है । कुछ वर्षों पहले तक वहाँ सिलेट्ज़ दी-नी  भाषा बोलने वाला एकमात्र व्यक्ति जीवित था । अमेरिका के ही ओकलाहोमा , टेक्साज और न्यू – मेक्सिको क्षेत्र में 40 मूल भाषाएँ अब मृतपाय हो गई हैं । ईस्टर्न साइबेरिया में सरकार की नीति की वजह से अपनी बोलियों को छोड़कर जनजातियाँ  राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग के लिए बाध्य हैं ।

एक प्रसिद्ध पुस्तक Humanity – An Introduction to Cultural Anthropology के अनुसार पूरी दुनिया में 3000-9000 भाषाएँ हैं और अगली शताब्दी में इनमें से सिर्फ 10 % ही अपने को बचा पाएँगी ।

अलास्का नेटिव लैंगवेज़ सेंटर के डाइरेक्टर माइकेल क्रौस्स के अनुसार पूरी दुनिया में 6000 भाषाएँ 2050 ईसवी तक विलुप्त हो जाएंगी या मर रही होंगी । और भविष्य में सिर्फ दर्जन भर भाषाएँ ही रह पाएँगी ।

युनेस्को की 2003 की रिपोर्ट भी मिलती-जुलती बातों का खुलासा करती है । कहती है दुनिया में 6000 भाषाएँ हैं । इनमें से आधी जो अलिखित और अनडौक्यूमेंटेड हैं , इसी शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी । यह रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की 97 % आबादी सिर्फ 4 % भाषाएँ बोलती हैं । इसका यह भी मतलब है कि 96 % भाषाएँ सिर्फ 3 % लोगों द्वारा बोली जाती हैं । 21 वीं शताब्दी में विलुप्त होने वाली भाषाएँ वैश्विक भाषाओं द्वारा प्रतिस्थापित हो जाएंगी ।

युनेस्को की 2009 की रिपोर्ट कुछ और भी डरावनी बातें प्रकाश में लाती हैं । 6000 भाषाओं में 2500 भाषाएँ खतरे की श्रेणी में हैं , जो कभी भी विलुप्त हो सकती हैं , 200 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं , 178 भाषाएँ 10 से 50 लोगों द्वारा ही बोली जाती हैं , 199 भाषाएँ 10 या 10 से कम लोगों द्वारा बोली जाती है ।

एक दूसरा अध्ययन बताता है कि दुनिया की आधी से ज्यादा भाषाएँ बोलने वाले 10 हज़ार या उससे भी कम लोग हैं । दुनिया की एक चौथाई भाषाएँ हज़ार से भी कम लोग बोलते हैं ।
1998 का एक लेख यह पहले ही बता चुका है कि मंदारिन चाइनीज़ , अङ्ग्रेज़ी , हिन्दी , स्पेनिश , रसियन तथा अराबिक वैश्विक भाषाओं की श्रेणी में आते हैं । इनके बोलने वाले क्रमशः 103 करोड़ , 50 करोड़ , 48 करोड़ , 41 करोड़ , 28 करोड़ तथा 24 करोड़ लोग दुनिया में थे । ये संख्या अब काफी बढ़ गई होंगी क्योंकि आज की तिथि में जनसंख्या भी बढ़ गई है और इन भाषाओं ने कई – कई भाषाओं को अपने में लील भी लिया होगा । इन अध्ययनों में सबसे चौंकाने वाली तथा मन को सुकून पहुंचाने वाली एक बात बताते हुए हमारा मन अत्यंत ही आनंदित हो रहा है कि अगली शताब्दी में जब दर्जन भर से भी कम भाषाएँ रह जाएंगी तो उसमें अपनी हिन्दी भी अक्षुण्ण बनी रहेगी । यह भारत की उन तमाम अन्य भाषाओं के लिए खतरे का  तथा उदासी का  पैगाम है । उस समय तक रसियन एवं अराबिक जैसी समृद्ध भाषाओं पर भी विलुप्तता का खतरा मँडराता रहेगा ।

आइये अपने भारत के संबंध में भी कुछ मनोरंजक तथ्यों से वाकिफ हो लें । अंग्रेजों के समय में जार्ज ग्रियर्सन महोदय ने 1894 से 1928 के मध्य भारतीय भाषाओं पर विशद शोध किया था । किन्तु उन्होंने सिर्फ 364 भारतीय भाषाओं के अस्तित्व में होने की बात कही थी । उनका काम प्रसंशनीय होते हुए भी वास्तविकता से काफी दूर था । 1961 की जनगणना 1652 भाषाओं की जानकारी देता है । 1991 की जनगणना 1576 भाषाओं तक सीमित हो जाती है । 2001 की जनगणना कुछ विशेष बातें प्रकाश में लाता है । 30 भाषाएँ दश लाख से ज्यादे लोग बोलते हैं । 60 भाषाएँ एक लाख से ज्यादे लोग बोलते हैं । 122 भाषाएँ दश हज़ार से ज्यादे लोग बोलते हैं । इनमें से हिन्दी बोलने वाले 41 % लोग थे ।

हाल ही में इसी सितंबर , 2013 में पीपल्स लिङ्ग्विस्टिक सर्वे औफ़ इंडिया ने पूर्व कथित सी ही कुछ बातें बताई हैं । गणेश डेवी जिनके पर्यवेक्षण में यह सर्वेक्षण कार्य  चल रहा था और जिनके 3000 कार्य - कर्ताओं ने करीब चार सालों तक अथक परिश्रम करके महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर किए हैं , बताते हैं 780 भाषाएँ हैं , 100 से कुछ और ज्यादे हो सकती हैं । इस तरह कुल 900 भाषाएँ  हो सकती हैं । सिर्फ उत्तर-पूर्व में ही 250 भाषाएँ हैं । उनका कहना है , पिछले 50 वर्षों में 220 भारतीय भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं , अन्य 150 अगले 50 वर्षों में विलुप्त हो जाएंगी ।

इन रिपोर्टों तथा तथ्यों को देख कर आइये आज हम शपथ लें कि हिन्दी के उन्नयन एवं संवर्धन के लिए काम करेंगे । एक और तथ्य कि छोटी भाषाएँ बड़ी भाषा की सहयोगिनी बनकर अनंत काल तक जीवित रह सकती हैं , हममें एक आशा का संचार करता है कि तमाम अन्य भारतीय भाषाएँ हिन्दी की सहयोगिनी बनकर हिन्दी को समृद्ध करेगी तथा हिन्दी के साथ अनंत काल तक जीवित रहेंगी । हमारा  देश भारत इस एकमात्र हिन्दी की वजह से अपनी एकता एवं अखंडता को बचाए रखेगा और भविष्य में पूरी दुनिया को नेतृत्व प्रदान करेगा ।

जय हिन्दी ! जय भारत !

अमर नाथ ठाकुर , 30 सितंबर , 2013..

Sunday, 14 July 2013

केदार का तांडव या भागीरथी का भटकाव



तबकी गंगा के घमंड को तोड़ शिव ने जटा में समायी थी --
कठोर तप उपरांत भगीरथ ने सगर-संतति को मुक्ति दिलायी  थी --

तब पग-पग पर गंगा भटकी थी -
घाटी -घाटी में मटकी थी -
कभी गौ ने कभी ऋषि ने गटकी थी -
भगीरथ-प्रयास से गंगा सागर तक में फुदकी थी --

कुपित कपिल से शापित जो -
सगर के साठ सहस्र संतति को -
मिली थी आत्मा की शान्ति जो -

क्या अब भी शेष भ्रान्ति थी -
उसके बाद अब क्या जरूरत थी -
अपने पथ पर तो  बह रही अनवरत थी -

क्या यह केदार के तांडव का था प्रादुर्भाव --
या केदार की जटा में फिर से उलझी भागीरथी का भटकाव --

अमर नाथ ठाकुर , २८ जून , २०१३, कोलकाता .

छोड़ जाता



प्रतिक्षण स्पर्श करती गुजरती
चली जाती शीतल पवन --
खिसकती चलती जाती जंगले से
पसरती सहस्र सूर्य-किरण --

ढलते दिन के साथ  लंबी दूर  होती
जाती कृषकाय छाया --
अंतरिक्ष में अदृश्य होता चला जाता
सवारियों के धुएँ का साया --

क्षण -क्षण सरकता दूर चलता जाता
मेघ -समूह क्षितिज के पार --
डूबता चला जाता सूरज
रोज-रोज अंधियारे से हार --

औंधे आकाश की पेंदी से
एक एक कर रिसते जाते तारे --
भागते कोयल-पपीहे कौए की
कर्कशता के मारे सबेरे-सबेरे--

विलंबित होती जाती
ढोल नगाड़े तबले की आवाज --
ठूंठ करते जाते वृक्ष
जब आसमान से गिरते गाज --

विलीन होती जाती प्रतिध्वनियों की
तरह विचार - समूह --
और निष्प्रभाव होती जाती
दृढ़ इच्छा-शक्ति समूल --

टूटते पहाड़ जैसा जीवन
तिस पर फटते बादलों जैसा विसंगतियों का रेला--
छोड़ जाता मुझ सबको
अकेला-अकेला बिलकुल अकेला --


अमर नाथ ठाकुर , कोलकाता , ३ जुलाई २०१३.



Saturday, 6 July 2013

कितनी-कितनी नींदें सजाए

मेहनत,थकावट और पसीने 
उमर भर चलने-फिरने 
दौड़ने के सपने 
न जाने कितनी-कितनी  नींदें सजाए
और हम चलते जाएँ  ---

हर क्षण काम के साए 
काम का बोझ तो भी नहीं सताए 
ये तो मन को भाए 
और हम गाते गाएँ  ---

धमकियां इज्ज़त लूटने की 
चमकियां हंगामा मचाने की 
हुमकियां धैर्य के चरमराने की 
क्या-क्या नहीं दुःख पाए
और हम गिरते डगमगाएँ ---

कटाक्ष और फजीहत 
फिर बासी सड़ी गालियाँ 
व्यंग्य -भरी तालियाँ 
छद्म प्रेम-दान  की चालाकियाँ 
बार-बार सताए 
और हम जार-जार रोएँ ---


अमर नाथ ठाकुर , ५ जुलाई २०१३ , कोलकाता.

Friday, 31 May 2013

महाभारत जारी है



-१-

गली   हो   या  कूचा
युद्धक्षेत्र बना समूचा
घर हो गाँव कस्बा या शहर
तबाही मची है  आठों  प्रहर
सड़क हो  या  खेल का मैदान
राह रोके समक्ष खड़ा  शैतान
ठेका हो या अन्य  कोई व्यवसाय
मची है हाहाकार   और हाय-हाय
फैक्ट्री  हो  या  ऑफिस  या  हो  संसद  भवन
सर्वत्र गाली-गलौज लूट-खसोट मरण-मारण का है वातावरण

-२-

द्रौपदी का  कहाँ वहाँ हुआ था पूर्ण चीर-हरण
कहाँ हुई थी उसकी हत्या अथवा शील -हरण
सिर्फ सौ गालियों पर ही चला था चक्र-सुदर्शन
और अभद्र   शिशुपाल हुआ था मृत्यु को वरण
सिर्फ एक लाक्षागृह बना और जला था
वह             भी रहा था विफल-
पाँचों पांडव द्रौपदी कुंती सहित
उससे निकलने में हुए थे सफल -
सिर्फ एक था दुःशासन दुराचारी
लम्पट निर्दयी  और व्यभिचारी
वहाँ  एक  था  दुर्योधन   धोखेबाज़
असत्यवादी कपटी और चालबाज़
बाज़ी पलट पाशा फेंकने वाले
सिर्फ एक थे शकुनि मामा-
जिनके मन में था विद्वेष
और बदले की भावना -
एक था वहाँ  राजा धृतराष्ट्र अंधा
जो करता था   पुत्रवाद  का  धंधा

-३-

यहाँ तो हर घर गाँव राज्य और सम्पूर्ण देश
बना कौरव-पांडव  के  दो  दलों  का कुरुक्षेत्र
चीर-शील हरण  हत्या उपरांत द्रौपदियाँ निर्जीव सजी है
शकुनियों       दुःशासनों      दुर्योधनों     की  भीड़  लगी  है
युधिष्ठिरों अर्जुनों भीमों की नीति, मेधा , शक्ति हीन पड़ी है
काला चश्मा पहन धृतराष्ट्री-सरकार  मौन जड़ी   है

कृष्ण  को  कौन  पुकारे ,  न  किसी की जो उनसे यारी है
चीख-चीत्कारें कौन सुने,  विस्तारित महाभारत जारी है


अमर नाथ ठाकुर , ३० मई -२०१३ , कोलकाता .


Monday, 20 May 2013

आकृतियाँ


-१-
गौर से देखो दीवारों की आकृतियाँ
रेखा-चित्र
कोई हंसती हुई
कोई बिलखती हुई
कोई खौफनाक
कोई नम्र
कोई धौंस जमाती हुई
कोई नमन की मुद्रा में याचना करती हुई .

-२-
गांधी बाबा की ऐनक
वीरप्पन की मूंछें
कवि गुरू की दाढ़ी सीने तक
भगत सिंह की तिरछी टोपी
आज़ाद की यज्ञोपवीत के धागे .

-३-
साग , करेले
भींडी जैसी नुकीली केले .
कहीं आँखें नीचीं
पलकें सटी हुई
नाक ऊपर
मुंह बंद
लेकिन कान फटी हुई
गाल सटकी हुई
एक हाथ माथे पर
एक भटकी हुई
उंगलियां अनगिनत
बाल किन्तु गिनती के
विभ्रम की स्थिति में ये मन
क्या सोचे
क्या माने
क्या समझे.

-४-
किन्तु
चौथी दीवार
नहीं रखती जैसे किसी से कोई सरोकार .
यहाँ सिर्फ एक आँख है
जो न झांकती है
जो सिर्फ ताकती है
निष्ठुर बनी हुई है
बांकी की तीनों दीवारों की
व्यंय-चित्र आकृतियों को जैसे पढ़कर
अपलक हो गयी हो 
भूत-वर्त्तमान की साक्षी यह 
हाथ-मुंह-दांत-कान-वदन सब इसने गंवाए
यहाँ तक कि आँख जैसा भाई भी न साथ आए 
देश बनाने में सभी कुटुम्बों को खोने का स्वाद चखकर 
देश-भक्ति , त्याग और बलिदान परखकर 
और फिर भविष्य को सोचकर . 

अमर नाथ ठाकुर , १४ अप्रील , २०१३ , कोलकाता .

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...