Saturday, 2 May 2015

......अपनी धरती भी नेपाल हो जाए



चलो आज ही बात पूरी कर लें
मन का कोना-कोना सिक्त कर लें
न जाने कब वह विचार-कंप आ जाए
और सारे मौलिक विचार बिखर जाए ।
बिना सँजोए बिना समेटे रहने वाले
ये मन किधर बहक  जाए ।

क्यों आज बात अधूरी छोड़ दें
न जाने कब वह विचार दंभ आ जाए
और मन का कोना-कोना रिक्त हो जाए ।
चलो आज ही निष्ठा अपनी व्यक्त कर दें
न जाने कब विचार खंड-खंड हो जाए ।
चलो आज ही जज्वात अपनी सख्त कर लें
न जाने कब ये विचार अपने अंड-बंड हो जाए ।

न जाने कब झकझोरने भूचाल विकट आ जाए
और छोटे-बड़े-अधूरे-पूरे सब घर भरभरा जाए ।
न जाने कब धरती नेपाल बन  जाए
और नदियों का निर्मल जल बेदर्द रक्त बन जाए ।

कब विचारों की बाढ़ आ जाए
न जाने कब विचारों का सूखाड़ आ जाए
कब विचारों का तूफान आ जाए
और न जाने ये कब मन को ही उजाड़ जाए ।
न जाने विचारों का कब पहाड़ बन जाए
न जाने कब विचारों को ये आड़ दे जाए ।

यदि रोना हो तो रो लें
यदि हँसना हो तो हँस लें
न जाने कब ये मन कल बेमन हो जाए
न जाने कब ये मन दो मन हो जाए ।

ये मन आज  रमा लें
सारी खुशियाँ आज समा लें
क्यों न ये दौड़ आज लगा लें
न जाने इन पैरों को कब लकवा मार जाए ।
न जाने कब ये दवा भी बेकार हो जाए ।
न जाने कब अपनी धरती भी नेपाल हो जाए ।


अमर नाथ ठाकुर , 30 अप्रैल , 2015 , कोलकाता । 

2 comments:

  1. आ0 ठाकुर जी
    आज पहली बार आप के भाव और विचार पढ़े जो आप ने काव्य में ढाला है
    विचार उत्तम है ,आप की आशंका भी सत्य है ’...न जाने कब" अत: वर्तमान ही सत्य है...बधाई .....बहुत से आप के मन के भाव एक साथ उभर आये ..और भी .बेहतर ढंग से channelise होने की संभावना है
    सादर

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  2. आदरणीय सर ,
    बहुत-बहुत धन्यवाद , आपने कविता पढी और अपने बहुमूल्य सुझावों से मुझे अनुगृहीत किया . हमारा प्रयास रहेगा .

    पुनः धन्यवाद ,

    अमर नाथ ठाकुर .

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