Thursday, 8 December 2011

क्यों आज मेरा व्यथित मन भरमाए !


नैतिकता के रक्त से रंजित 

केसरिया पूरी - पूरी 


नीचे भ्रष्टाचार की 

हरियाली की पट्टी हरी -हरी 


मध्य में 

कालेधन की पट्टी की सफ़ेद जरी 


और बीच में क्षण -क्षण रवैये बदलती 

बेईमान सरकार की वृत्ताकार चकरी 


चकरी की चौबीस तीलियों में 

सिब्बल , चिदम्बरम, तिवारी 


हसन अली , दिग्विजय , शीला , 

राहुल और कलमाड़ी


शरद , माया ,मुलायम, राजा और 

करुणा की पूरी सवारी 


और चकरी के  केंद्र पर

लगाम थामे देवी सोनिया खड़ी


क्यों आज मेरा व्यथित मन भरमाए 

जो मनमोहन के कंधे पर ऐसा तिरंगा नज़र आए !

अमर नाथ ठाकुर , १४ अगस्त , २०११ ..

लाल काका



उस दिन मुझे चिंता थी .

लाल काका ने पहले ही बताया था कि घर में एक ठुर्री तक भी नहीं है . और वह भूखे पेट खेत की तरफ गए हैं .शायद खेतों की हरियाली को देखकर भविष्य में कुछ मिलने की आशा से भूख की तीव्रता कुछ कम हो जाय.

दोपहर बाद जब वह लौटे तो तिलाठी वाले  कमलू काका भी उनके साथ थे तथा दूर से ही उनका ठहाका सुनायी दे रहा था. लगा जैसे अपनी गरीबी एवं भूख को तेज ठहाके से छिपा रहे हों. किन्तु पास आने पर तो पूर्ववत लाल काका पान खाए लाल – लाल नज़र आ रहे थे . वही मुस्कान, वही तेज . बातों में वही पैनापन . हमने पूछा , “लाल काका सब ठीक तो है ?”
“कब खराब देखा है ?” और मंद हँसी .

कोई चिंता नहीं कि दोपहर–बाद में अतिथि कमलू काका के आने पर खाने का क्या इंतज़ाम होगा .फिर उन्होंने दादी की तरफ मुड़कर कहा,  “खाने-वाने की व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि भरपेट चूड़ा – दही खाकर आए हैं .” सब कोई हक्का - वक्का . किन्तु  राहत की  सांस  सबने ली थी अतिथि को भूखा न रह जाना पड़े इस भय के दूर हो जाने  से.

कुरेदने पर लाल काका ने जो कहानी बतायी वह आज भी याद कर रुआंसे में भी गुदगुदा  देती है .

जेठ की दुपहरिया में उनके होंठों पर फुफरी पड़ रही थी . भूख से पेट-पीठ दोनों एक हुआ जा रहा था . गमछी कंधे से हँटाकर पेट पर बाँध लिया था . प्यास के मारे मुँह तो सूखकर कागज़ हो गया था .

( हमें  तो निराला की पंक्तियाँ याद आने लग जाती हैं ---
पेट  पीठ मिलकर हैं एक -
चल रहा लकुटिया टेक -
मुट्ठी भर दाने को -
भूख मिटाने को -  )

बाज़ार पहुँचने ही वाले  थे  कि तरह – तरह के विचार मन में आ रहे थे . जिससे उधार अभी तक नहीं लिया है उसके दुकान में जाना है. लेकिन ऐसा क्या कोई बचा  है . लेकिन जो भी हो कुछ करना तो पड़ेगा. कदम किन्तु बरबस केडी ( किसुन देव ) के चाय-नाश्ते की दूकान की तरफ बढ़ता चला गया . दूर ही से कमलू भैया नज़र आ गए . पैर ठिठक गया केडी के दूकान के ही सामने. तिलाठी से धूप में कई कोस चलकर आ रहे होंगे. घर पर खाने का इंतज़ाम तो करना ही पड़ेगा. सोच कर तो जैसे लाल काका  सूख गए . किन्तु फिर जैसे बांछे खिल गयीं. रेगिस्तान में जैसे जलस्रोत नज़र आ गया हो.  बांहों पर कुर्ता समेटा .
कमलू भैया प्रणाम कहकर पैर छुआ .

उनका आशीर्वाद लेकर ," गांव से ही तो , सब कुशल हैं तो . कब चले थे ? कितनी गरमी है बाप रे . आप तो पसीना-पसीना हो गए हैं . थक गए होंगे . आइये इस दूकान में पानी-वानी पीते हैं , थोड़ा सुस्ताते हैं और फिर चलते हैं" . और बात करते-करते केडी की दूकान में घुस भी गए थे. केडी को इशारा मारा और झट से कदम बढ़ाकर अंदर की सीट पर पहले बैठ गये  भविष्य की सोचकर कि जिससे बिना कमलू भैया के निकले बिना बाहर  निकला न जा सके .

 दुर्गति काल में शिष्टता का कोई ख़याल नहीं करता.  शायद भविष्य की चिंता उन्होंने पहली बार की होगी , पेट की आग ने जो यह बेचैनी पैदा कर दी थी .

कमलू भैया भी बगल की कुर्सी पर आसन ग्रहण कर चुके थे.

केडी बनिया जो ठहरा , लाल काका के इशारे को पूरी तरह पढ़ चुका था.

झट से पानी का ग्लास टेबुल पर पटका. लाल काका ने कहा, " भैया चाय चलेगी ?"  लेकिन तब तक केडी की आवाज़ आयी – " लाल काका बढ़िया ताज़ा दही है थोड़ा-थोड़ा टेस करेंगे ?"
“अरे पूछना क्या है , क्या कमलू भैया ?”
“ हाँ-हाँ ” कमलू भैया ने भी  कहा .

केडी ने लाल काका की अभिनय की हैसियत और कमलू काका की जेब का अनुमान लगा कर रिस्क ले लिया . आधा-आधा किलो चूड़ा एक-एक किलो दही एवं पाव-पाव  भर चीनी का प्लेट तैयार किया और परोस दिया दोनों ब्राह्मणों के समक्ष प्रेम-पूर्ण हाथों से. जैसे एकादशी व्रतोपरांत व्रती एक-एक अप्रतिम खाद्य-वस्तु ब्राह्मण के समक्ष समर्पित कर देती है. केडी के इस व्यवहार से कमलू काका भाव-विभोर हो गए. वह लाल काका और केडी के मायावी जाल में बंध गए थे.

“हमने पूरा ख्याल रखा कि खाने का कौर कमलू भैया के बाद ही उठावेंगे . क्योंकि हमें डर था कि कहीं हम न अपना थाली  पहले  खतम कर दें. अंत में जब देखा कि भैया का खाना खतम हो रहा है तो पूरी तैयारी के साथ अंतिम कौर भैया के साथ ही उठाया" , लाल काका ने ऐसे ही कहा था .

"जैसे घंटे और मिनट की सूई एक साथ बारह बजे मिल जाती है. एक साथ कौर उठाया , एक साथ लोटा उठाया , एक साथ पानी पीया . एक साथ डकारा , फिर एक साथ खड़े हुए हाथ धोने के लिए . मेरे कदम पूरी तरह नियंत्रण में थे कि वो कमलू भैया से आगे न निकल जायं . कमलू भैया बातें जारी रखते हुए बढ़ते जा रहे थे बरामदे की तरफ . श्रेष्ठ-कनिष्ठ धर्म का पूरा ख्याल करते हुए , हम भी  उनके साथ - साथ किन्तु पीछे-पीछे सारी क्रियाएँ करते रहे ."  लाल काका ने यहाँ शिष्टता का पूरा ख्याल रखा था क्योंकि यहाँ शिष्टता उनकी जरूरत थी . उनका  स्वार्थ था.

जैसे ही कमलू भैया ने हाथ धोया , उन्होंने भी जल्दीबाजी दिखाई कि जैसे उन्हें  कमलू भैया से पहले काउंटर पर पहुँच जाना है. कमलू भैया ने कंधे से गमछी खींचा और हाथ का पानी पोंछना शुरू कर दिया .लाल काका ने भी नाट्य-मंचन में कोई कोताही नहीं बरती . हाथ धोते-धोते  आवाज़ लगाई , “कितना हुआ केडी , हिसाब करना ?” उनके हाथ पोंछे जाने तक उन्होंने भी जी भर कर  हाथ धोया . अब नाटक समाप्त होने ही वाला था , " मैं मंद-मंद मुस्कान के साथ पीछे हंटने  ही वाला था  कि अब कमलू भैया काउंटर पर पहुँच ही रहे होंगे. किन्तु ये क्या , भैया ने तो दंतखोदना से दाँत खोदना शुरू कर दिया . जैसे सब किये कराये पर पानी फिर गया हो . क्या अपना नाटक कहीं पकड़ा तो नहीं जाएगा . बेईज्ज़ती  की संभावना से मैं तो फिर पसीना-पसीना हो गया . कहीं केडी मुझसे तो पैसा मांगना नहीं शुरू कर देगा , हे भगवान ! कहीं काउंटर पर हमें ही तो नहीं जाना पड़ जाएगा .   भय-मिश्रित साहस से काउंटर पर चला तो गया और झूठ-मूठ का कुरते के जेब में दाहिना हाथ डाला . हाथ फटे जेब से निकल कर दूर नीचें ठेहुने तक पहुँच गया. ठन-ठन  गोपाल . केडी ने देख और समझ लिया . कमलू भैया बाएं तरफ निश्चिन्त-भाव से ऊपर की ओर मेरे मन के घमासान से अनभिज्ञ फूस के घर में लगी बांस की बल्लियों को जैसे गिन रहे हों . मेरा पूरा भरोसा “खेवैया के राम देवैया” में था. बुद्धि काम कर गयी .

"केडी , भई, चाय बनाना जल्दी-जल्दी . इतना भी नहीं समझते कि चूड़ा-दही खाने के बाद चाय के लिए कहना नहीं पडता है . स्पेसल बनाना . क्या कमलू भैया ?”
उन्होंने हामी  भरी .
फिर क्या था ,  चाय आयी .

"एक बार फिर से हमें अपने को सुरक्षित ज़ोन में पहुंचाना था , सो हमने किया. वैसे ही जैसे दिन के अंतिम ओवर में खतरनाक बाउंसर से बचने के लिए नाईट वाचमैन बैट्समैन ने अपने को बचाने के  लिए एक रन लेकर स्ट्राइकर एंड से नन-स्ट्राइकर एंड पर पहुंचा दिया हो. क्योंकि कोई रिस्क तो लेना नहीं था.  इस बार पूरी मुस्तैदी से मैं कोई जल्दीबाजी नहीं कर चाय की चुस्की लिए जा रहा था. ठान रखा था कि कमलू भैया को ही चाय पहले खतम करानी है. ऐसा ही हुआ .कमलू भैया की चाय खतम हुई , कप जैसे ही उन्होंने मेज़ पर रखी और कुर्सी से उठे , मैंने भी गटागट बची-खुची चाय निगल डाली तथा झपट्टा मारकर भैया के समानांतर काउंटर पर पहुँच गया. अब पेमेंट की बारी थी न . कमलू भैया ने दस टकिया निकाल लिया था  "

"भई केडी , भैया अतिथि हैं . मुझे पाप न पहुंचाना. भैया से पैसा न लेना."   कोई चूक न हो जाए मैं ने केडी को आँखों के इशारे से सब कुछ समझाने की भी कोशिश कर ली. फिर भैया को भी बोला , "भैया हमारे गाँव में आकर   आप पैसे न  चुकाएं और  अतिथि – असम्मान का पाप  न लगावें. "            

"मैंने अभिनय की सीमा में रहकर जेब में हाथ डाल दिया था .इस बार ये मेरा बायाँ हाथ था और जेब भी बाएं तरफ वाली. क्योंकि मैं कमलू भैया के बायें तरफ खडा था "

 ठन –ठन गोपाल के लिए जेब की क्या जरूरत. महीनों ऐसा मौका न आया हो कि जेब की जरूरत पड़े.

"जो भी हो केडी समझ चुका था मेरे अंदाज़ को. वह मुस्करा पड़ा था".

कहीं जेब से निकला हाथ कमलू भैया  की नज़र में न आ जाय और दरिद्रता उपहास न बन कर रह जाय , लाल काका ने घूम कर काउंटर से हँटकर  एक ओर सुरक्षित क्षेत्र में अपने को पहुंचाया.  

"मेरे  दुराग्रह से कमलू भैया ठिठक न जायं और बोल न  दें कि लो अच्छा कोई बात नहीं , तुम ही पैसे चुकाओ , अपने पर अब पूरा नियंत्रण रखा. केडी बुद्धिमान था . वह मेरा अभिनय पढ़ चुका था. उसने समझ लिया था कि मेरी बातों में पडकर पूरी जिंदगी मेरे से उधारी का पैसा वसूल नहीं पाएगा. अब मेरी चिंता केडी की चिंता हो गयी  थी . मेरा भय केडी का भय था."

जैसा लाल काका ने बताया ---संपेरे के बीन पर घूमते नाग के फण की तरह लाल काका से कमलू भैया और कमलू भैया  से लाल काका की तरफ बार-बार फिरता के डी का हाथ  यकायक रुक गया था और झपट्टा मार कर उसने कमलू भैया  के हाथ से दस टकिया लेकर अपने बक्से में रख लिया था कि कहीं लाल काका की एक्टिंग पर भरोसा कर कमलू भैया निकाला हुआ दस टकिया फिर अपने बटुए में वापस न रख लें.

साढ़े नौ रुपये का बिल काटकर बची अठन्नी से केडी ने खुद ही पान वाले से दो खिल्ली पान भी मंगवा दिया . यह पूरी तरह लाल काका को किसी और जिल्लत से बचाने के लिए केडी ने किया था .
पान खाए , प्रफुल्लित मन से एक विजेता की भाँति लाल काका अपने कमलू भैया को साथ  लेकर घर की तरफ चल पड़े.

हालांकि लाल काका ने अपनी चाल से कमलू काका को ठगा था किन्तु जब उसी दिन लाल काका ने यह वाकया निर्मल-मन से मंद-मंद मुस्कान के साथ भरी चौकड़ी में ठहाकों के बीच सुना दिया तो स्वयं कमलू काका भी हँसे बिना नहीं रह सके.

किनको नहीं होगी लाल काका की गरीबी से करीबी.

वर्षों बाद आज जब अपनी गांव की जिंदगी को याद करते हैं तो लाल काका का यह चरित्र बरबस आँखों में आँसू  के साथ गुदगुदाहट वाली एक मंद मुस्कान ले आती है और मन अनायास बोल पड़ता है--- लाल काका आप हमेशा जीते  रहें –सौ-सौ साल तक !

 अमरनाथ ठाकुर , दिसंबर २०१० .

ये जो तुम चले जाते हो


ये जो कि तुम चले जाते हो --
विवेक-शून्य कर जाते हो--

सहस्र -सूर्यकिरण  जैसे खोती आभा
ओस-सिक्त-हरी घास की सूखी ज़रा
धवल-पूर्ण -चन्द्र की ओझल होती प्रभा --

वीराना हुआ जैसे शहर   
वृक्ष -रहित  जैसे जंगल 
कल-कल ध्वनि -रहित जैसे निर्झर---

यह काया जो कि माया है 
क्या किसी का साथ निभाया है

ये जो कि तुम चले जाते हो --
निशाने- ख़ाक  छोड़ जाते हो --

अमरनाथ ठाकुर , ४ दिसंबर , २०११ .

सजनी की अक्षत मांग को सजा दूं



तुम्हारे लाल होंठ ,

चंचल चितवन ,

मीन - सदृश आँखें

और कान के ये झुमके --



घनी केश राशि ,

विस्तृत ललाट , 

उस पर अवस्थित बिन्दिया

जब रात्रि की चाँदनी में चमके -


बालों को लहरा दूं ,

साड़ी को फहरा दूं ,

ग्रीवा को सहारा दूं ,


रूप माधुर्य से मन की तृष्णा को मिटा लूँ -----


गुनगुनाकर बन जाऊं भ्रमर,

नीहार लूँ तुम्हें एक प्रहर,

किन्तु मध्य में एक नहर ,

जो मुझे रोक रहा -

और रात्रि वेला की ये चन्द्रप्रभा ,

जो मुझे टोक रहा --


ओ कजरारे बादल ,

ज्योति धवल छुपा जा ,

नहर ऊपर महासेतु एक बना जा -

चला जाऊं उस पार

और सजनी की अक्षत माँग को सजा दूं !



अमरनाथ ठाकुर , १९८५ .

अमिलन





तुम हमेशा आती हो निर्बाध , अविराम -

तुम विश्वसनीया ,         मेरे नयनाभिराम -


मन्द-मन्द , कोमल -कोमल , हे पावन -पवन -

घट-संग जैसे , ठुमक - ठुमक         वन उपवन -


साथ में सुहाग रंग और मनोहारी मादक श्रीखण्ड-

नीहारूं ,  दौडूँ ,  भटकूँ ,  अलिप्त ,   मैं     पाखण्ड -


मैं जानूँ , तुम आगे - पीछे , तुम अगल - बगल , तुम आर - पार -

तुम यत्र तत्र , तुम सर्वत्र , फिर भी ये अमिलन हे पवन मिलनसार ---




अमरनाथ ठाकुर , १९९६ .

दर्द बाँट रहे हैं


यदि नहीं कहें तो ये मत समझना कि कह रहे हैं -
यदि कह जायं तो ये मत समझना कि 'शो ' कर रहे हैं -
यदि हँस जायं तो ये मत समझना कि ग़मों को छुपा रहे हैं -
लेकिन यदि रो जायं तो समझना दर्द बटोर रहे हैं -

क्यों हँसते हैं



यदि हम रोयें , तो साथ नहीं रोओगे -
यदि हम गम  में डूब जाँय तो साथ नहीं डूबोगे -
इसलिए तो ठहाके लगाते हैं क्योंकि साथ तो हँसोगे --

प्रियतम




तुम अव्यक्त , अकथ्य  जैसे तुम अतीत --

तुम अमूल्य , अशेष , ओ मेरे मीत --


पावन जल से अभिसिक्त , सिन्दूर से अभिभूत --

तुम्हारी कजरामय पलकें देख हुआ अविभूत -----

आओ सखे ! नीहार लूँ जी भर --

ठमक मत , ओ सौन्दर्य की आकर -


तुम ही तो लक्ष्य , सृष्टि का सत्य -
-
तुम ही पाथेय , तुम ही अमरत्व --

तुम्हारा सान्निध्य , तुम्हारा स्पंदन -

तुम्हारी चाहत का अनेक अभिनन्दन --


नील नभ , नील सागर , विशाल भूखंड , सब तेरे संग --

सर्वव्यापी पवन -सदृश , प्राण प्रिये ! तुम अखण्ड, तुम अखण्ड !!!!!


अमरनाथ ठाकुर , १९९६

आत्म -चिन्तन


हम वही किया करते हैं जिसके दूसरों के द्वारा किये जाने  पर हम दूसरों की घोर आलोचना किया करते हैं .
हम वही बोलते हैं जिसके दूसरों के द्वारा बोले जाने  पर हम दूसरों पर नाक -भौं सिकोड़ते हैं .
हम वही गाते हैं जो दूसरों के द्वारा गाये  जाने पर हममें झल्लाहट पैदा करती  है .

ज़रा सोचिये  ऐसा करने , बोलने  एवं गाये जाने पर दूसरों की हमारे ऊपर क्या प्रतिक्रिया होती होगी .


अतः कुछ भी करने , बोलने अथवा गाने के पहले हम आत्म -चिन्तन क्यों न कर लिया करें कि इसके करने से दूसरे असुविधा तो महसूस नहीं करेंगे .

Gandhian Talisman से प्रेरित यह तरीका वो जादुई  तराजू/लगाम  है जो हमारे व्यवहार एवं आचरण को संतुलित/ नियंत्रित करेगा .

अमरनाथ ठाकुर , 22 मई , 2011.

धर्म एवं व्याकरण

धर्म भाषायी -जीवन का व्याकरण है .


 व्याकरण से भाषा सशक्त और सुगठित होती है . भाषा की शुद्धता व्याकरण से मापी जाती है .व्याकरण के बिना भाषा अर्थहीन  हो सकती है . अर्थ रहित अथवा निरर्थक भाषा संचार -माध्यम नहीं हो सकती . अलग -अलग भाषाओं का अलग-अलग व्याकरण है  किन्तु सभी व्याकरण उस भाषा विशेष के लिए वही कार्य करती है . सुना है कभी कि एक व्याकरण दूसरे व्याकरण के लिए व्यवधान खड़ी करती है  ? 


                                                                                                                                                                     धर्म जीवन को सार्थक एवं सरस करता है . जीवन धर्म से अनुशासित होता है .धर्म जीवन को दिशा प्रदान करता है . धर्म जीवन को भटकने से बचाता है . धर्म ही जीवन का पालन करता है . जितने लोग उतने धर्म हो सकते हैं  किन्तु सारे धर्म एक धर्म होते हैं . क्योंकि  यह एक ही लक्ष्य की ओर अग्रेसित करता है . धर्म भेद नहीं पैदा करता . धर्म बांटता नहीं  , जोड़ता है . एक का धर्म  दूसरे के धर्म के आड़े नहीं आ सकता . धर्म धर्म के बीच घृणा पैदा नहीं करता . धर्म धर्म के बीच तो प्रेम होता है . धर्म अनुशासित जीवन परम आनंद को प्राप्त होता है . इसलिए  सब अपने धर्म का पालन करें .
                                                                                                                                                                                                                                                                                                  अमरनाथ ठाकुर     11  मई  , 2011. 

साईं का वर्त्तमान





बाबा चिलम पीते और रखते एक  टमरेला -

सिर पे सफेद कपड़ा बांधें जैसे लटका हो बालों का जूडा--

पैरों में न कोई जूता -चप्पल  और आसनी टाट का --

अल्ला मालिक के उद् घोष  से न पालना नादानी -

कौपीन धारण करें जो और जलाएँ दिन -रात धूनी --

अहं , इच्छा  , एवं विषय-आसक्ति की नित उसमें आहूति डालें-

मस्जिद में निवासें जो उस बाबा की हम अनुभूति पालें --


बाबा को नमन कर  , शरण में जब जाओगे --

भक्ति -उपरांत परम आनंद सहज ही पाओगे ---





बाबा भक्तों को समर्पित -
अमरनाथ  ठाकुर , २००८ 

साईं बाबा









वह सबकी सुनता है  , तेरी सुनेगा -

सेवा में लग जा  , भक्ति -प्रसाद पाएगा -


बहुत खोया है  , अब नहीं खोएगा -

अलग रहा है  , साथ अब पाएगा -

बहुत गंवाया है  , कृपा अपार लाएगा -

मन होगा निर्मल  , खुशियाँ हज़ार लाएगा -

रहा है भूखा  , व्यंजन हज़ार खाएगा -

यह बाबा की दुनियाँ है  , सर्वत्र बाबा का दीदार पाएगा --


क्योंकि ----

बाबा है महान  , बाबा सर्वव्यापक-

बाबा सृष्टिकर्ता , बाबा ही नियामक --




बाबा  भक्तों को समर्पित  -
अमरनाथ ठाकुर ,अप्रैल ,२००८ 

आशाएँ


कुछ महसूस हुआ ?

आज का सवेरा बिलकुल  नया था . कहीं कुहरे का अता - पता तक नहीं .
सूरज नयी किरणें बिखेर रहा था .यह पीलिया नहीं था . इसमें सुनहरापन था .
काले बादल दूर जाते नज़र आ रहे थे .

चिड़ियों की चहचहाहट में दर्द का नामोनिशान तक नहीं था .
ओस - बूँदें मोती सदृश चमक रहे थे .

मंद - मंद वायु इस ठंडक में मनोहारी शीतलता प्रदान कर रहा था .
क्यों न हो यह जो नया साल २०११  है .

लक्षण तो सारे नज़र आ रहे हैं कि न कहीं लूट होगी , न खसोट , न कहीं दगाबाजी और न कहीं अत्याचार . न कोई घोटाले होंगे ,  न कोई भ्रष्टाचार . सत्य का बोलबाला होगा , इमानदारी अपनी पैठ जमाएगी . काम करने वाले फल पाएंगे . दोस्ती जीतेगी , दुश्मनी हारेगी . हर जगह प्यार और भाईचारे  का वातावरण होगा . अमन - चैन की ही वंशी बजेगी . न्याय का साम्राज्य फैलेगा . राजा का महल धराशायी हो जाएगा , काल अपनी मांड में होगा .

आइये मन में ठान लें कि नये साल २०११ का यही व्रत हो .
भगवान हम सब लोगों के लिये नया वर्ष मंगलकारी करे !



अमरनाथ ठाकुर .

“इस जीवन” का सार




आँसुओं की खुशी एवं हँसी का क्रन्दन

यह न कोई व्यतिक्रम –


आते  आँसू खुशी में एवं दुःख में मंदहास –

क्योंकि यह तो मृत्यु है , जब मुझ में गति है –

जीवन तो तब आएगा

रुक जाएगी जब साँस –

जब पहनूँगा मृत्यु-पुष्प  का हार

वह होगा जीवन का द्वार –

जो इस “जीवन” के पार

यही है इस “जीवन” का सार –

----------------------------------------------------अमरनाथ ठाकुर,१९९९ .

मन क्यों रोया रे


भागती बस ने दर्जनों को कुचला

तो मन पिघला

क्योंकि कुचली लाशों में सब अपना ही नजर आया रे –

हाथ फैलाए भीख माँगते बुजुर्गों की होती देखी फजीहत

तो मन को मिली कोई नसीहत

क्योंकि सब अपना ही नजर आया रे –


पहले ही तिरस्कृत

फिर निष्कासित

लाठी पर लटकी वृद्धा को देख –

मन बिलखा रे ----

क्योंकि फिर उसमें अपना ही नजर आया रे ---



लुटती महिला, पिटता नौकर

नंग-धडंग अनाथ बच्चे

दीन-हीन भूखे गँवार

जो देखीं थर्रायी पथरायी आँखें हजार

पुनः रोया जार-जार ---

क्योंकि सब में अपना ही अपना नजर आया रे ---



इसलिए आज मन रोया रे !!!

इसलिए आज मन रोया रे !!!

अमरनाथ ठाकुर , १२ नवंबर २०१०.

25 जनवरी 2008 का अखबार



बाप ने मारी बेटे को गोली

बेटे और माँ ने मिल जलायी बहू की होली

बहू से बलात्कार ससुर ने किया

भगवन तूँ ने ऐसा क्यों मंजूर किया ?



भाई की हत्या भाई ने की

अफसोस किसी ने जाहिर नहीं की !

गाँव का मुखिया लूट मे शामिल -

फिर किया लाखों हासिल –


ट्रक बस में टक्कर हुई

फिर कार  ने तीन को कुचला –

युवक फरार हुआ , युवती को फुसला –



ये कैसी भागा-भागी

स्कूल में किशोर ने गोली दागी

एक की मौत ----

बालक का अपहरण , दस लाख की फिरौत –



घोटाले के संस्करण में जुड़ा

एक नया घोटाला –

किडनी घोटाला –

मजदूर को हड़काकर दिया एक लाख –

लाचार-बीमार को  भड़काकर खुद लिया दस लाख –

डॉक्टर ने गिरायी अपनी साख –

घर में ही ऑपरेशन थियेटर खोला --

आज का अखबार बोला , आज का अखबार बोला ---



आतंकियों ने किया प्रहार –

गोलियों की बौछार –

कश्मीर में रोज-रोज हो रहा नर संहार –

फिर बोला आज का अखबार –



बस ने ली कार से टक्कर –

फिर गिरी कार पलटी खाकर –

दो की मौत हुई , दो घायल हुआ –

दो गायब है , दो का ऑपरेशन सफल हुआ –



रेलगाड़ी आज फिर पटरी से उतरी है –

मन को किन्तु शान्ति है क्योंकि बड़ी दुर्घटना आज टली है –



इतने में नज़र गयी है राज्यों की संक्षिप्त खबर पर –

पूर्वोत्तर में होते रोज-रोज के विस्फोट पर –

तमिलनाडु में करुणा की चली –

महाराष्ट्र  में राज ठाकरे की सेना भिड़ी –

छत्तीस-आन्ध्र में नक्सलियों का उत्पात मचता रहा –

बंगाल में नंदीग्राम सिसकता रहा –

बिहार में अपहरण का तांडव चलता रहा –

हरियाणा में कौरव हुए विजयी और पांडव भटकता रहा –

उत्तर प्रदेश में फिर हुआ एनकाउंटर –

मध्य प्रदेश में शिक्षक-छात्र का बढ़ता अंतर –

पुलिस मूक  खड़ी रही –

द्रौपदियों का चीर खिंचता रहा –

दुःशासनों के सिर टीका सजता रहा –

अन्य राज्यों में भी दलित जलता रहा –

माफियाओं का उत्पात चलता रहा –

ये ही समाचार थे जो आत्मा को सालता बार-बार –

आज का अखबार , आज का अखबार .....



अमर नाथ ठाकुर, कोलकाता ।

मैं हर पल जन्म नया लेता हूँ

 मैं हर पल जन्म लेता हूँ हर पल कुछ नया पाता हूँ हर पल कुछ नया खोता हूँ हर क्षण मृत्यु को वरण होता हूँ  मृत्यु के पहले जन्म का तय होना  मृत्य...