ये जो कि तुम चले जाते हो --
विवेक-शून्य कर जाते हो--
सहस्र -सूर्यकिरण जैसे खोती आभा
ओस-सिक्त-हरी घास की सूखी ज़रा
धवल-पूर्ण -चन्द्र की ओझल होती प्रभा --
वीराना हुआ जैसे शहर
वृक्ष -रहित जैसे जंगल
कल-कल ध्वनि -रहित जैसे निर्झर---
यह काया जो कि माया है
क्या किसी का साथ निभाया है
ये जो कि तुम चले जाते हो --
निशाने- ख़ाक छोड़ जाते हो --
अमरनाथ ठाकुर , ४ दिसंबर , २०११ .
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