तुम्हारे लाल होंठ ,
चंचल चितवन ,
मीन - सदृश आँखें
और कान के ये झुमके --
और कान के ये झुमके --
घनी केश राशि ,
विस्तृत ललाट ,
उस पर अवस्थित बिन्दिया
जब रात्रि की चाँदनी में चमके -
बालों को लहरा दूं ,
साड़ी को फहरा दूं ,
ग्रीवा को सहारा दूं ,
रूप माधुर्य से मन की तृष्णा को मिटा लूँ -----
गुनगुनाकर बन जाऊं भ्रमर,
नीहार लूँ तुम्हें एक प्रहर,
किन्तु मध्य में एक नहर ,
जो मुझे रोक रहा -
और रात्रि वेला की ये चन्द्रप्रभा ,
जो मुझे टोक रहा --
ओ कजरारे बादल ,
ज्योति धवल छुपा जा ,
नहर ऊपर महासेतु एक बना जा -
चला जाऊं उस पार
और सजनी की अक्षत माँग को सजा दूं !
अमरनाथ ठाकुर , १९८५ .
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